गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

लेकिन कब तक?

'हम दल साथ-साथ हैं', लेकिन कब तक?
फ़ैसल मोहम्मद अली

बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
समाजवादी विचारधारा से जुड़े दलों के विलय की गाड़ी शायद अभी तीसरे गियर में भी नहीं पहुंची कि सवाल शुरू हो गए हैं कि वो कितनी दूर तक चल पाएगी?
सवालों का ये दौर बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की प्रेस कांफ्रेस में ही शुरू हो गया था.
नीतीश कुमार ने ये जानकारी दी कि छह राजनीतक दलों की बैठक में फैसला हुआ है कि मुलायम सिंह यादव सभी से बातचीत कर पार्टियों के साथ आने की प्रक्रिया की रूपरेखा तैयार करेंगे.
नीतीश से पूछा गया कि क्या समाजवादी विचारधारा के ये दल भारतीय जनता पार्टी या नरेंद्र मोदी के डर से साथ आ रहे हैं? पार्टी का नेता कौन होगा? नाम क्या होगा नए दल का?
‘बीजेपी के लिए चुनौती हो सकती है’
ये दल पहले भी कई दफ़ा साथ आ चुके हैं लेकिन असहमतियां इतनी अधिक रहीं कि ज़्यादा दूर साथ चल नहीं पाए.
राजनीतिक विश्लेषक नीरजा चौधरी कहती हैं कि सैद्धांतिक रूप से इन दलों का साथ आना विपक्ष को मज़बूत करेगा क्योंकि बीजेपी को लोकसभा चुनावों में मात्र 31 प्रतिशत वोट मिले थे यानी बाक़ी के 69 फ़ीसदी मत उसके विरोध में थे.
इन दलों के अलग-अलग होने की वजह से बीजेपी को बड़ी तादाद में सीटें हासिल हुईं.
नीतीश कुमार ने संकेत दिए कि जो छह दल बैठक में शामिल हुए उनके अलावा दूसरे क्षेत्रीय दल भी इस फ्रंट का हिस्सा हो सकते हैं.
मुलायम-अखिलेश
हालांकि वो ये साफ नहीं कर पाए कि वो नए दल का हिस्सा होंगे या फिर सब मिलकर किसी तरह का कोई फ्रंट तैयार करेंगे.
जो दल बैठक में शामिल हुए उनमें समाजवादी पार्टी, जनता दल यूनाइटेड के अलावा इंडियन नेशनल लोकदल, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल सेक्यूलर और समाजवादी जनता पार्टी के नेता शामिल थे.
झारखंड चुनाव में अलग अलग क्यों?
कुछ लोग ये भी सवाल कर रहे हैं कि अगर दूसरे दल भी समाजवादियों के इस गठजोड़ में साथ आना चाहते हैं तो फिर झारखंड के चुनाव में ये दल साथ मिलकर क्यों नहीं लड़ रहे?
बिहार में लोकसभा चुनावों के बाद हुए उपचुनावों में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार साथ आए थे जिसका नुक़सान बीजेपी को उठाना पड़ा.
यहीं पर सवाल ये भी उठता है कि क्या कभी उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और बहुजन समाज पार्टी की मायावती साथ-साथ आ सकते हैं?
नीतीश कुमार लालू प्रसाद यादव
बिहार उपचुनावों में नीतीश और लालू का गठजोड़ बीजेपी को नुक़्सान पहुँचा चुका है.
राजनीतिक विश्लेषक उर्मिलेश कहते हैं कि इस सच को सभी मान चुके हैं कि सिर्फ़ कोई चमत्कार ही यूपी में मुलायम और माया को साथ ला सकता है!
जो दल साथ आने की कोशिश में हैं उनमें से कई के पास तो संसद में कोई सीट ही नहीं लेकिन सभी की सीटें मिला दी जाएं तो ये लोकसभा में 15 के आंकड़े को पहुंचती है.
आम चुनावों में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बेजपी ने इन सभी दलों को उनके गढ़ कहे जाने वाले इलाक़ों में बुरी तरह पछाड़ा था.
मोदी के ख़िलाफ़ कौन?
नीरजा चौधरी कहती हैं कि 2014 में बीजेपी की जीत को भ्रष्टाचार के ख़िलाफ लोगों के ग़ुस्से के साथ-साथ नरेंद्र मोदी के शक्तिशाली नेतृत्व की जीत भी थी.
लेकिन इस नए दल में मोदी के ख़िलाफ़ वो किस नेता को पेश करेंगे?
कांग्रेस नेतृत्व वाली मनमोहन सिंह सरकार के दौर में रुके फ़ैसलों और भ्रष्टाचार के सवाल को मनमोहन सिंह गठबंधन की राजनीति की मजबूरी कहते रहे.
लोग क्या उस बात को इतनी जल्दी भूल जाएंगे?
एक सवाल ये भी है कि बदले भारत में नए दल के पास वोटर को ऑफर करने के लिए कौन सी योजना होगी जिससे वो मोदी की बीजेपी के विकल्प के तौर पर पेश करेंगे.
इन सबसे परे सवाल और भी हैं जैसे मुलायम पिछले दिनों अपनी राजनीतिक ज़मीन बिहार में पसारना चाहते हैं क्या लालू-नीतीश उसे पसंद करेंगे?
एक फर्क़ है इस बार
सपा में जिस तरह का परिवारवाद है उसका क्या होगा? साथ ही इस प्रस्तावित फ़्रंट के अहम नेता लालू प्रसाद यादव भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जेल जा चुके हैं और कई के ख़िलाफ़ इस तरह के मामले चल रहे हैं.
तो क्या ये सब जनता को मान्य होंगे या फिर ये लोग अगर बीजेपी पर आरोप लगते हैं तो उन्हें किस तरह उठा पाएंगे?
समाजवादी विचारधारा के दलों के हालांकि इस बार साथ आने में एक बात भिन्न है.
पहले जब आपातकाल के बाद तैयार हुई थी तो उस समय जनसंघ पार्टी (जो बाद में बीजेपी बनी) इसका हिस्सा थी.
साल 1987 में भी वीपी सिंह के नेतृत्व में बनी सरकार को बीजेपी का समर्थन हासिल था.
तब ये गठबंधन कांग्रेस के ख़िलाफ़ तैयार हुए थे. अब बीजेपी उनकी मुख्य राजनीतिक प्रतिद्वंदी है.

जनता परिवार: इतिहास का मज़ाक़िया दोहराव?

  • 7 नवंबर 2014


सपा प्रमुख के घर जुटे जनता दल परिवार के नेता

लोकसभा चुनाव में भाजपा के हाथों मिली करारी हार के बाद बिखरे हुए जनता दल परिवार के नेता गुरुवार को दिल्ली में मिले.
सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के घर पर हुई बैठक के बाद बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बताया कि जनता परिवार में एकता बनाने का प्रयास शुरू किया गया है. उनका कहना था कि यह प्रयास आगे भी जारी रहेगा.

पत्रकार उर्मिलेश का विश्लेषण

एकता के प्रयास

कभी जनता दल में रहे सभी गुटों की एकता के नाम पर भारत की समकालीन राजनीति में एक बार फिर इतिहास को दोहराने की कोशिश हो रही है. अभी यह कहना कठिन है कि इस बार यह एक और त्रासदी साबित होगी या प्रहसन!
एकता-प्रयास की इस बैठक में गुरुवार को समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल(यू), जनता दल(एस) और इंडियन नेशनल लोकदल के नेता शामिल हुए.


नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव

भविष्य में कुछ और समूहों को भी इसमें शामिल करने की योजना है.
बैठक का एजेंडा पहले के एकता-प्रयासों से इस मायने में अलग था कि इस बार इन दलों के बीच सिर्फ़ एक - गठबंधन या मोर्चे के तहत काम करने तक ही सीमित नहीं रही, निकट भविष्य में सभी गुटों-दलों के विलय से किसी एक नए एकीकृत दल के गठन के प्रस्ताव पर भी व्यापक सहमति बनाई गई.

एकता या विलय

समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव, पूर्व प्रधानमंत्री और जनता दल (एस) नेता एचडी देवगौड़ा और जनता दल (यू) अध्यक्ष शरद यादव व नीतीश कुमार विलय के पक्ष में बताए जा रहे हैं.


मुलायम सिंह यादव और अन्य नेता
ममता बनर्जी ने मुलायम सिंह को सर्वाधिक गैरभरोसेमंद नेता बताया था.

उधर राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद और इनेलो के दुष्यंत चौटाला ने एकता के प्रति अपनी वचनबद्धता तो दोहराई लेकिन ये दोनों नेता विलय के मामले में कुछ और वक़्त चाहते हैं.
शायद दोनों दल विलय के प्रस्ताव को हरी झंडी देने से पहले अपने संगठन के अंदर कुछ और चर्चा कर लेना चाहते हैं.
एकता बनाने के प्रयास में जुटे इन दलों के पास लोकसभा में कुल 15 सदस्य हैं. 2014 के संसदीय चुनाव में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा ने इन सबको उनके अपने-अपने सूबों में बुरी तरह पछाड़ा.


मुलायम सिंह यादव

इसमें कोई दो राय नहीं कि मोदी के राजनीतिक अभ्युदय और केंद्र की भाजपा-नीत सरकार के कामकाज की नई शैली ने पुराने जनता दल के सभी नेताओं को अपने राजनीतिक वजूद और इन दलों के भविष्य पर नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर किया है.
मोदी के राजनीतिक प्रभामंडल का बढ़ता दबाव ही इन दलों की एकता या विलय-पहल के पीछे की मुख्य प्रेरक शक्ति है. इसके अलावा इनके अपने बचे हुए जनाधार का भी दबाव होगा.

घटनाओं से सीख

एकता प्रयास की राजनीति को समझने के लिए लोकसभा चुनाव के बाद के दो महत्वपूर्ण घटनाक्रमों को भी देखा जाना चाहिए. इनका भी इन नेताओं पर असर पड़ा होगा.


मुलायम सिंह यादव और मायावती

पहला घटनाक्रम है, बिहार और यूपी के उपचुनावों में भाजपा के दिग्विजय-रथ का बुरी तरह थम जाना. दूसरा है, महाराष्ट्र और हरियाणा में कांग्रेस को शिकस्त देते हुए भाजपा का विजयी होना. मतलब साफ़ दिखा कि आमने-सामने की लड़ाई में जनता दल परिवार यूपी-बिहार में भाजपा को रोक सकता है.
बिहार के उपचुनावों नीतीश और लालू साथ मिलकर लड़े थे, जबकि लोकसभा चुनाव में वे अलग-अलग थे. यूपी में हुए उपचुनाव में बसपा ने प्रत्याशी नहीं दिए थे.
उपचुनावों के तत्काल बाद लालू ने पटना से बयान जारी किया कि यूपी में भी आगे से मुलायम को मायावती से मिलकर लड़ना चाहिए, जैसा बिहार में हमने किया. पर उस वक़्त मुलायम ने लालू के बयान को ख़ास तवज्जो नहीं दी. मायावती ने भी इसे व्यर्थ बताया.
इस सच को सभी मान चुके हैं कि सिर्फ़ कोई चमत्कार ही यूपी में मुलायम और माया को साथ ला सकता है!

फ़ायदे का गणित



मुलायम सिंह यादव और अन्य नेता

मुलायम को अपने पुराने जनतादल सहयोगियों से मिलकर एकीकृत दल बनाने के फ़ायदे का गणित फ़िलहाल अच्छा लगा. लेकिन राजनीति में अंकों का गणित हमेशा कारगर साबित नहीं होता. एकता के रसायनशास्त्र की भी ज़रूरत होती है. क्या वह मौजूदा एकता-प्रक्रिया में नज़र आ रही है?
अतीत को खंगालें तो जनता दली या दलीय कुनबे के एकता-प्रयासों में मुलायम की 'विश्वसनीयता' सबसे कमज़ोर कड़ी है. सन 2004 के बाद उन्होंने या अन्य राजनीतिक घटकों ने मुद्दा-आधारित गठबंधन या मोर्चे के जितने प्रयास किए, उन्हें ध्वस्त करने का सर्वाधिक श्रेय मुलायम को जाता है.
यूपीए-1 कार्यकाल में सपा, इनेलो, टीडीपी, नेशनल काफ्रेंस, एजीपी आदि ने मिलकर युनाइटेड नेशनल प्रोग्रेसिव एलायंस (यूएनपीए) बनाया. कुछ ही महीने बाद 2008 में मुलायम ने यूपीए और न्यूक्लियर डील के समर्थन के सवाल पर उसे ध्वस्त कर दिया. वह अचानक यूपीए-डील के समर्थन में चले गए.
साल 2012 में राष्ट्रपति चुनाव के दौरान ममता बनर्जी और अन्य विपक्षी नेताओं के साथ उनकी मोर्चेबंदी हुई पर वह भी कुछ घंटे से ज़्यादा नहीं टिकी. ममता ने उन्हें सर्वाधिक ग़ैरभरोसेमंद नेता बताया.

मोर्चे का भविष्य



नरेंद्र मोदी और अमित शाह

ऐसे में सवाल उठना लाज़िमी है, नई मोर्चेबंदी या एकीकृत दल अगर अस्तित्व में आते भी हैं तो उसका नेतृत्व कौन करेगा? अतीत के विघटन-तोड़फोड़ की जनता दल की आदतों से वह कितना बच सकेगा, उसका अपना एजेंडा क्या होगा?
आर्थिक नीति के स्तर पर कांग्रेस, भाजपा, सपा आदि के बीच ज़्यादा फ़र्क़ नहीं रह गए हैं. कमोबेश तीनों दल बड़े कारपोरेट और मध्यवर्ग के हितों पर ख़ास ध्यान देते हैं. ऐसे में क्या नया दल या गठबंधन नरेंद्र मोदी की सरकार और भाजपा की आर्थिक नीति का वैकल्पिक मॉडल सुझाए बग़ैर अपने जनाधार के बीच समर्थन जुटा सकेगा?
उल्लेखनीय है कि इन दलों का बड़ा जनाधार पिछड़े, अल्पसंख्यक और कुछेक दलित समुदायों में है. नेतृत्व और नीतिगत मसलों पर किसी नएपन के बग़ैर काठ की हांडी बार-बार चूल्हे पर कैसे चढ़ेगी?
नई राजनीतिक सोच और भरोसेमंद नेतृत्व के अभाव में इस तरह की जमावड़ेबंदी से सिर्फ़ इतिहास का एक मज़ाक़िया दोहराव होगा. नया करना है तो नई राजनीतिक अंतर्वस्तु भी चाहिए.

शनिवार, 6 सितंबर 2014

अगली पहल……………

मित्रों नमस्कार!

अत्यंत विनम्रता के साथ आपसे आग्रह करना है की मेरी आवाज आपतक नहीं पहुंची या और किन्ही कारणों से हम उस बात पर भरोसा तो किये जिसमें सदियों की साजिश थी, साजिश का सौदागर था या हमारे बीच का लिंक ख़राब था, जो भी हो उसका अब कोई इलाज़ नहीं है.

आने वाले दिनों में कई समझौते होने हैं पर उनका केंद्र आपके हाथ नहीं होगा फिर हम फसेंगे और उसी प्राकांतर के अभिशाप के बसीभूत होंगे जो अब तक के राजनैतिक और सामाजिक बदलावों में हुए हैं. छोटे ही सही अनेकों उदाहरण है जिनसे हम देख सकते हैं की मूल तत्वों पर वही आघात करते हैं जिन्हे डर है की उनका वर्चस्व ही न समाप्त हो जाय कहीं।
मैंने इस अभियान को आरम्भ करते हुए ये उद्देश्य लेकर चला था कि -

आदरणीय
यह अभियान ब्लागर के माध्यम से एक विल्कुल अव्यवसायिक अराजनैतिक मात्र सामाजिक बदलाव के उद्येश्य से किया जा रहा प्रयास है, 2 0 1 4 का जिक्र उस प्रक्रिया की वजह से किया जा रहा है जिसमें सामजिक सरोकार बनते और बिगड़ते हैं।
सामाजिक जुडाव का सुअवसर मिलता है।
बुरे के खिलाफ खड़े होने का अवसर भी।
भारत गनराज्य की एकता अखण्डता का पर्व होता है 'आम चुनाव'.
इसी उद्येश की पूर्ति सजग अवाम से अपेक्षित भी है.
इसी उद्येश्य से संमसामयिक सन्दर्भों का हवाला लेना होगा अन्यथा सबकुछ  सकता है, 

"भारत वर्ष में दलितों पिछड़ों की राजनितिक विडम्बना ही यही है की ये बदलाव की बात तो करते हैं पर इन्हें पता ही नहीं है कि ये बदलाव होंगे कैसे" जिस अवाम को ये धोखे में रखकर आज उनकी सहानुभूति बटोरकर अपनी जागीर बनाने में लगे हैं, यही तो सवर्ण और पूंजीवादी निति है. अम्बेडकर और लोहिया के नामपर 'रोटियां' सेकने वाले उन्ही के नियमों की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं. और संपदा संरक्षण में सबको मात देने में लगे हैं, जबकि सारे हालात इसी तरह के हैं पर इन्हें ही बदनामियाँ झेलनी हैं.
सवर्ण मीडिया कभी सोनिया का किचन और डाइनिंग हाल नहीं दिखाता लेकिन मायावती की सारी जागीर अखबारों के पन्ने पन्ने पर है.
सैफई का उत्सव क्या हो गया जैसे कोई अनरथ हो गया हो (सता में हैं तो कोई साधू संत तो हैं नहीं) कुछ तो करेंगे ही - इन्ही की माधुरी दीक्षीत इन्ही के सलमान खान क्या ! इनको लगा इनकी जागीर लूट ली है, सैफई वालों ने 'असभ्य बनाए रहने की साजिशन वहां के नवजवानों को बंधक क्यों बनाए रखना चाहता है मीडिया।
दिल्ली में सरे आम बुढिया विदेशी औरतों तक के साथ दुराचार करने वाले कौन हैं क्या इन्हें इटली से लाया गया है।" नहीं ये वही लोग हैं जो भ्रष्टाचार मिटाने वाली पार्टी 'आप' के मतदाता हैं.

न जाने कितने कालेजों और विश्वविद्यालयों यहाँ तक की बिदेशों में भी इनके जातिवाद के तार जुड़े हैं जहाँ ये पिछड़ों और दलितों की इंट्री को बाधित करते हैं। 

बुधवार, 2 जुलाई 2014

"धर्म जनता को सुलाने वाला रसायन है"

  • Ravindra Kant Tyagi Muaafi ke sath Dr.Lal Ratnakarsahab agade pichde ki is lakeer ko jinda rakhme me jitna sahyog unka hai utna hi aapka bhi hai.
  • Omprakash Kashyap जिन आदि शंकराचार्य ने भारत में चार स्थानों पर पीठ स्थापित किए थे, वे इस देश के महान दार्शनिक थे. हैरानी की बात है कि उन्हीं के उत्तराधिकारी एक सामान्य पुरोहित जैसा वर्ताव कर रहे हैं. वही क्यों टेलीविजन पर जितने भी उनके समर्थक बहस में उतरे हैं, उन्हें देखकर तो लगता ही नहीं कि वे अपने दर्शन—ग्रंथों को पढ़ने की जहमत उठाते हैं. 
    धर्म उनके लिए जीवनशैली नहीं 'दंड' है, जिससे वे लोगों को हांकना चाहते हैं.
  • Dr.Lal Ratnakar माफ़ी का सवाल नहीं है त्यागी जी यह समाज का ज्वलंत मुद्दा है और इसे ही ठीक करने के लिए सामजिकता मंत्रालय है परन्तु दुर्भाग्य है की हमारे कथित संत महात्मा अपनी असलियत छुपाये समाज को ठग रहे हैं ! इसमें आप मुझे इस रूप में न घसीटें मैं जो देखता हूँ कह देता हूँ उसे छुपाता नहीं और आप को भी इसी विचार का समर्थक मानता हूँ। यही बात हर एक के साथ है जो जहाँ है वहीँ उनकी तरह ही खड़ा है वह मैं या आप हों कोई अलग नहीं दीखता।
  • Ravindra Kant Tyagi माननीय डॉक्टर साहब मेरा उद्देश्य व्यक्तिगत तोर पर आपको कुछ कहना नहीं है। मैं सिर्फ ये अर्ज करना चाहता हूँ की हिन्दू एक धर्म है जो सैकड़ों साल से एक ऐसी दीवार है जिसपर न जाने कितने लोग आये और अपनी इबारत लिख कर चले गए। यकीनन दीवार इतनी दागदार हो गई की उसका मूल अस्तित्व धूमिल हो गया। अब क्या हमारा कर्त्तव्य ये नहीं कि इसे साफ़ करने का प्रयास करें न की मुह फेर लें। 
    अगड़ा पिछड़ा दलित सवर्ण कोढ़ की तरह हिन्दू धरम के अंग अंग को चाट रहा है किन्तु पूरी सहृदयता के साथ ये स्वीकार करने में मुझे कोई गुरेज नहीं है की ये मर्ज धीरे धीरे काम हो रहा है और इसे पूरी तरह समाप्त करने में दोनों पक्षों को सामान रूप से प्रयास करना होगा। हम बार बार इसे कुरेद कर समाधान नहीं निकल सकते।
  • Dr.Lal Ratnakar मान्यवर ! जी आपके कथन में जो तथ्य व् तत्व हैं उसे नकारा नहीं जा सकता ! पर मुझे वहां कोई अड़ंगा खड़ा करना वाजिब नहीं लगता, पर जिन नेताओं ने इसे भड़काया आज वही उसका दोहन कर रहे हैं ! 
    यहाँ पं. द्वारिका प्रसाद मिश्रा के "मिश्र शतक" ये पंक्तियाँ याद आती हैं -
    कलाकार देता नहीं युगधारा का साथ 
    बहती गंगा में नहीं धोता है वह हाथ। 
    मेरे कई दोस्त मुझे मेरी जाती से जोड़कर जिस तरह से इस रूप में घसीटते नज़र आते हैं उनकी दृष्टि को क्या कहूँ ! जबकि वे अत्यंत निहायत चातुर्यभाव से अभिभूत 'दमन' की नव अवधारणा का घात पर प्रतिघात से लावलब होते जाते हैं, तद्परांत मेरे जैसे मित्र को जो सजा देते हैं उसका स्वाद आपको कैसे बताऊँ !
    मेरे धर्म पर कोई हमला नहीं कर सकता मेरा मानना है धर्म चरित्र से तय होता है, चरित्रवान बने रहने के लिए धर्म सहायक होता है !
  • Dr.Lal Ratnakar धर्म के और बहुतेरे क्षेत्र हैं जहाँ मुझे किसी की उपस्थिति प्रभावित नहीं करती, हम भयभीत क्यों हैं कि धर्म का अपमान या लोग अधार्मिक होते जा रहे हैं विकास की बहुतेरी धारा ही धर्म के बहुतेरे मानक को तोड़ते जाते हैं, अब विकास का वरन करें या धर्म को धारण कर "असुविधाओं" के मकड जाल में उलझे रहें दोनों दशाओं में हमें एक नवीन मार्ग तो ढूढना ही होगा ! जो धर्म हज़ारों हज़ार को अछूत बनाता हो, दरिद्दर बनाता हो, अशिक्षित बनाता हो, उंच नीच का अभिमान खड़ा करता हो, अनेक अवसरों पर रोकता हो या असमानता को बढ़ाता हो उसे कैसे सबका धर्म कहेंगे !
    -डॉ. लाल रत्नाकर
  • Ravindra Kant Tyagi To kya dharam ko chod den ya badal len .Uma bharti ko savdhan karte hue aap ye bhool rahe hain ki Narendr modi bhi usi varg se ate hain.
  • Dr.Lal Ratnakar महोदय ! मुझे क्यों उमा का सहायक बना रहे हैं उमा जी विदुषी हैं आदरणीय प्रधानमंत्री जी की जाती पर क्यों जाते हैं ये सब धार्मिक लोग हैं और मैं भी धर्म से विलग थोड़े ही हूँ ! मैंने ऊपर के ही क्रम में बात को थोड़ा सा जोड़ा भर है !
  • Dr.Lal Ratnakar https://www.facebook.com/raghuvinder.yadav?fref=ufiजी बिलकुल सही कहा| किसी विद्वान ने कहा है-"धर्म जनता को सुलाने वाला रसायन है" इस रसायन का शातिर लोग अपने हक में उपयोग कर रहे हैं और नासमझों का शोषण.