बुधवार, 28 दिसंबर 2022

अथ भारत जोड़ो यात्रा।

अथ भारत जोड़ो यात्रा।

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भारत जोड़ो यात्रा की तैयारी बैठक में मैं भी था और हमारे साथ बहुत सारे और लोग भी थे जिनमें खास करके दिलीप मंडल प्रोफेसर रतन लाल और माननीय सुनील सरदार जी।

माननीय सुनील सरदार जी ने भारत जोड़ो यात्रा के महाराष्ट्र प्रखंड में अपना यात्रा कर समय दिया मेरे ख्याल से बाकी हम लोग अभी प्रतीक्षा में है की यात्रा में कहां से शरीक हों।

भारत जोड़ो यात्रा इस समय अवकाश पर है और इसके नायक चर्चा में, दवे मन से जो बातें आ रही हैं उनमें 2024 का चुनाव बहुत महत्वपूर्ण है।

अब सवाल यह है कि इस यात्रा का और चुनाव से क्या ताल्लुक है। फिर हमें बहुत सारी यात्राओं पर नजर डालनी होगी, कि उनके पीछे यात्रा का उद्देश्य क्या था।

इस यात्रा में राहुल जी बार-बार कहते हैं कि इसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है बल्कि वह यात्रा पर इसलिए निकले हैं की एक तपस्या कर सकें।

निश्चित रूप से वह आधुनिक तपस्वी दिख रहे हैं जब दिल्ली में कड़ाके की ठंड पड़ रही हो और अपनी उसी शर्ट में जिसको भक्तों ने बहुत ही महत्वपूर्ण बना दिया था पहनकर दिल्ली में अनेकों स्मृति स्थलों पर भ्रमण कर रहे हैं। और उनकी यह छवि लोगों को आश्चर्यचकित भी कर रही है कि इतनी ठंड में और टीशर्ट में, हो सकता है कि भक्तों के भीष्म पितामह जरूर कोई ना कोई उस टी-शर्ट में आविष्कार कर दे जिससे दूर दूर तक ठंड का नामोनिशान ना हो।

राहुल जी की तपस्या जारी है और आगे की यात्रा की तैयारी है जनता भी मन बना रही है जिसके लिए भक्तों का केंद्र चिंतित भी है।

लेकिन एक मजे की बात यह है कि इस यात्रा में जिन लोगों ने सहयोग किया है उनमें से बहुत सारे चेहरे जिनके सच को समझना निश्चित रूप से आज की राजनीति और पाखंड अंधविश्वास जुमले से मुकाबला है ऐसे में कान को इधर से पकड़िए या कान को उधर से पकड़िए है यह गहरी राजनीती का खेल।

इसको इस रूप में भी देखा जा सकता है कि भारतीय समाज जिस तरह से वर्ण व्यवस्था में बांटा गया है उसी के अनुरूप उसकी आर्थिक सामाजिक शैक्षिक राजनीतिक और व्यवसायिक हैसियत भी सुनिश्चित हो गई है। 

इसलिए हमें इस पर गंभीरता से विचार करना होगा कि क्या आपके पास वैज्ञानिक संस्थान हैं जहां से इन विषयों पर विमर्श हो सके । क्योंकि जब विमर्श का केंद्र, केंद्र की धुरी किसी विशेष विचारधारा को हस्त गत हो गई हो, जिसके लिए मुख्य रूप से भारतीय अवाम जो अज्ञानता के आनंद लोक में गोते लगाती रहती है के रूप में भी देखा जा सकता है। हमने महसूस किया है कि इस भारतीय राजनीति की जो चाबी है वह अब बहुत ही चालाक किसके लोगों के हाथ में पहुंच गई है क्योंकि लोकतंत्र मशीनों से तय नहीं होता लोगों की शिक्षा और अधिकार से जुड़ा हुआ मुख्य सवाल लोकतंत्र बनाने में आवश्यक होता है। जब चंद प्रलोभनों में भारतीय मतदाता को बहलाया फुसलाया जाता है तब ऐसा प्रतीत होता है जैसे उसके भविष्य के लिए व्यवस्था चिंतित है।

लेकिन होता इसके उल्टा है क्योंकि जनता के विकास और समृद्धि से सत्ता में बैठे हुए लोगों की कभी कोई रुचि नहीं दिखाई दी अन्यथा आज का भारत इस तरह का भारत ना होता।

बाबासाहेब आंबेडकर ज्योतिबा फुले ई वी रामास्वामी पेरियार के साथ-साथ अन्य तमाम उन विचारकों का भारत होता जो समता समानता और बंधुत्व से अभीसिंचित होता। दुर्भाग्य है कि हम ऐसा भारत बनाने में सफल नहीं हो पाए।

अंत में यही कहा जा सकता है कि राहुल गांधी का भारत जोड़ो यात्रा अभियान क्या इन तमाम सवालों को लेकर भारत के अब तक के योजना कारों की गलतियों और वर्तमान के अहंकार को पुनः स्थापित करने में सफल हो सकेंगे। यही प्रमुख सवाल है जिस से दो-चार होना पड़ेगा 2024 से पहले।

डॉ लाल रत्नाकर

मंगलवार, 15 नवंबर 2022

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत

 


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत ने मंगलवार को कहा कि देश में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति एक 'हिंदू' है और सभी भारतीयों का डीएनए समान है, और कहा कि किसी को भी अनुष्ठान करने के अपने तरीके को बदलने की जरूरत नहीं है। छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के मुख्यालय अंबिकापुर में स्वयंसेवकों (संघ के स्वयंसेवकों) के एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए, उन्होंने भारत की सदियों पुरानी विशेषता के रूप में विविधता में एकता पर बार-बार प्रकाश डाला और कहा कि हिंदुत्व दुनिया में एकमात्र विचार है जो सभी को साथ ले जाने में विश्वास करता है। हम 1925 से (जब आरएसएस की स्थापना हुई थी) कह रहे हैं कि भारत में रहने वाला हर व्यक्ति हिंदू है। जो लोग भारत को अपनी 'मातृभूमि' मानते हैं और विविधता में एकता की संस्कृति के साथ रहना चाहते हैं और इस दिशा में प्रयास करते हैं, चाहे वे किसी भी धर्म, संस्कृति, भाषा और भोजन की आदत और विचारधारा का पालन करते हों, वे हिंदू हैं, ? भागवत ने कहा।

उन्होंने कहा कि हिंदुत्व की विचारधारा विविधता को पहचानती है और लोगों के बीच एकता में विश्वास करती है। पूरे विश्व में हिंदुत्व ही एक ऐसा विचार है जो विविधताओं को एकजुट करने में विश्वास रखता है क्योंकि इसने इस देश में हजारों वर्षों से ऐसी विविधताओं को एक साथ रखा है। यह सच है और आपको इसे दृढ़ता से बोलना होगा। इसके आधार पर हम एक हो सकते हैं। संघ का काम व्यक्तिगत और राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करना और लोगों में एकता लाना है।' एक की तरह। हमारे पूर्वज समान थे। प्रत्येक भारतीय जो 40,000 साल पुराने 'अखंड भारत' का हिस्सा है, का डीएनए समान है।

हमारे पूर्वजों ने सिखाया था कि हर किसी को अपने विश्वास और रीति-रिवाजों पर टिके रहना चाहिए और दूसरों के विश्वास को बदलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। हर रास्ता एक आम जगह की ओर जाता है, भागवत ने कहा। आरएसएस नेता ने सभी धार्मिक आस्थाओं और उनके कर्मकांडों का सम्मान करने का आह्वान किया। सबकी आस्था और कर्मकांड का सम्मान करें। सबको स्वीकार करो और अपने रास्ते पर चलो।

अपनी इच्छाओं को पूरा करें, लेकिन दूसरों की भलाई का ख्याल न रखने के लिए इतना स्वार्थी मत बनो।" भागवत ने कहा कि पूरे देश ने एकजुट होकर कोरोनावायरस महामारी से लड़ाई लड़ी। हमारी संस्कृति हमें जोड़ती है। हम आपस में कितना भी लड़ें, हम संकट के समय में एकजुट हों। हम एक साथ लड़ते हैं जब देश किसी तरह की परेशानी का सामना करता है। कोरोनावायरस महामारी के दौरान पूरा देश इससे निपटने के लिए एक के रूप में खड़ा था, ”उन्होंने कहा।

लोगों से संघ की 'सखाओं' (आरएसएस कार्यकर्ताओं की मंडली) में जाने की अपील करते हुए उन्होंने कहा कि 97 साल पुराने संगठन का उद्देश्य लोगों को एकजुट करना और सच्चाई के रास्ते पर चलते हुए समाज को प्रभावशाली बनाना है। संघ को दूर से दर्शक के रूप में न देखें। अपने व्यक्तित्व को देश के लिए उपयोगी बनाएं और देश और समाज के कल्याण के लिए काम करें। ऐसा जीवन जीने के लिए स्वयंसेवक बनें, भागवत ने कहा।

बुधवार, 1 अप्रैल 2015

"भूख भ्रष्टाचार और अन्ना आंदोलन"

आदरणीय वीरेंदर यादव जी से हमने यह लेख को माँगा था "भूख भ्रष्टाचार और अन्ना आंदोलन" जो मिल गया है आप भी देखें और यादव जी को मेरे साथ धन्यवाद भी कहें !-डा.लाल रत्नाकर
"मुझे आप को लेकर कभी कोई भ्रम नही रहा. न मैं कभी अन्ना आन्दोलन का समर्थक रहा न आप का. निश्चित रूप से से यह नियोलिब्रल कार्पोरेटम हितोंैं द्वारा संचालित पार्टी रही है, जैसा की अन्ना आन्दोलन था. मैंने तभी अन्ना आन्दोलन का विस्तृत अलोचनात्मक विश्लेषण पहले ही किया था जो हार्पर कालिंस से हिन्दी में प्रकाशित 'अन्नान्दोलन' शीर्षक पुस्तक में शामिल है.चाहें तो संग्लन क्लिपिंग से मेरी राय जान सकते हैं. जो आआप पार्टी के बनने के भी पूर्व की है.आप अनावश्यक रूप से मुझे उस राय के साथ शामिल कर रहे हैं ,जिससे मैं शुरू से ही असहमत रहा हूँ.
लगभग तीन पूर्व जब आआप का गठन नही हुआ था तब मैंने अन्ना आन्दोलन की टीम के अगुवा लोगों को पाखंडी करार कर सही ही किया था . यद्यपि तब लोगों को मेरी यह बात बेसुरी लगी थी लेकिन आज सर्वानुमति यही बन रही है. मैंने तभी अन्ना आन्दोलन का विस्तृत आलोचनात्मक विश्लेषण भी किया था जो हार्पर कालिंस से हिन्दी में प्रकाशित 'अन्नान्दोलन' शीर्षक पुस्तक में शामिल है."

-वीरेंदर यादव..................















रविवार, 29 मार्च 2015

बदलते हुए वक़्त के दस्तखत ;

बदलते हुए वक़्त के दस्तखत ;
बदलते हुए वक़्त के दस्तखत ;यानी आज के दौर में बहुतेरे लोग बेमानी होते जा रहे हैं उन्ही में से अनेकों वे लोग जिनकी मान बहन की हो रही है अद्भुत गालियों के वे पात्र होते जा रहे हैं, कमीने आदि तो उनके लिए सामान्य सा सम्बोधन हो चुका है, ऐसे दौर में मेरा मानना है की ये सब उनके जनता के लिए पाले गए दुराग्रहों का ही परिणाम है ; खेती, किसानी, मज़दूरी, किसी भी तरह की चाकरी के चलते उसका जीवन कभी मानवीय नहीं हो पाता, घरेलु नौकर, ड्राइवर सबका यही हाल है। 
मुझे योगेन्द्र जी बेईमान नहीं लगते है जबकि केजरीवाल गिरोह अजूबा है।

बहुतेरे सामाजिक न्याय के बिरोधियों को केजरीवाल भा रहे थे , ईश्वरी प्रसाद ने भूरी भूरी प्रशंसा की इनकी आप जानना चाहेंगे क्यों ? क्योंकि उन्हें आनन्द,अजीत झा की असलियत और निकम्मापन पता है कि ये पिछडों, दलितों के कितने बडे विरोधी हैं । ऐसे ही लोग हैं जिनकी वजह से भ्रष्टाचारियों को संरक्षण मिलता है जो इनके भाई बन्द सब जगह काबिज हैं ।
उन्होने यही कहा कि केजरीवाल इनके लिये जो कुछ कहा वाजिब और सही है ।
इतनी जल्दी इनका कमीनापन उसे कैसे समझ आ गया । .............?
जबकि वे केजरीवाल को पसन्द नहीं करते । क्योंकि केजरीवाल भी भयंकर रूप से आरक्षण विरोधी जो हैं।
आम आदमी पार्टी केजरीवाल की दुकान है उसमें जो भी है इस दुकान का कर्मचारी हैं।
कर्मचारी की हैसियत क्या होती है ?
धीरे धीरे इनके काम काज के पोल खुलेंगे और पता चलेगा कि पूरा देश बेचने के फ़िराक़ में ये कोई भी समझौता करेंगे तभी तो इनकी इक्वल्टी की अवधारणा पूरी होगी !
अरविन्द ने जो कुछ कहा ;
देखिये मेरा मानना बिल्कुल अलग है आनंद कुमार के लिये जो कुछ कहा है कम है रही बात योगेन्द्र जी की तो वे गये ही गलत जगह हैं, बनिया बामनों के बीच गालियां खाने की परम्परा को उमाकांत और रमाकांत ही रोक सकते हैं यह काम योगेन्द्र जी नहीं कर सकते।
अब क्या माफी की लडाई लड रहे हैं भाई लोग इन्हें
लडना है तो सीधे क्यों न लडा जाय ?
योगेन्द्र जी यदि इनके साथ रहेंगे तो अपमान सहेंगे ये गिरोह ही गुण्डों का जो हैं।
योअजीत झा और आनंद कुमार को इतनी जल्दी कैसे पहचान लिया इन्हें ही तो गरियाया है । 
गेन्द्र और प्रशांत की छुट्टी ही में ये दोनों लगे थे ।
तो केजरीवाल ने सही किया है ऐसा कह रहे हैं प्रो.ईश्वरी प्रसाद जी।
नई राजनीति की आम आदमी की भाषा में ही तो गरियाया है, यही तो योगेन्द्र जी कहते भी हैं , अरविन्द की ये भाषा रिक्शा वाला समझता है , रेहडी वाला समझता है।
आशुतोष इसलिये ऐसा बोलकर ही वहां बचे रह सकते हैं, अन्यथा जिसदिन इन्हे बाहर किया जायेगा क्योंकि जिस दिन शीसोदिया को लगेगा की यह आदमी भी रोड़ा है उस दिन बहुत बुरा होगा ?

तमाम उन लोगों के नाम जिनमे "योगेन्द्र यादव" सच के साथ खड़े दिखते हैं ;
योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण जैसे सजग लोगों का टीम केजरीवाल जिसमें महाभ्रष्ट नुमा लोग ऐसी की तैसी कर रहे हैं, ये देश को कितना नुक़सान पहुँचाएँगे उसकी ये एक बानगी मात्र है।
जो व्यक्ति मंच से बिहार और उ.प्र. की कुछ जातियों को गाली देता हो, उस पार्टी में भाई योगेन्द्र जी की इस दुर्गति पर मुझे कम से कम कोई आश्चर्य नहीं है ! 
मेरी सोच और पुख़्ता हो रही है कि जिस जातीय संकीर्णता के योगेन्द्र जी विरोधी रहे हैं, उसी जातीय जकड़ के वे शिकार हो रहे हैं, जाति आपको बुरी लगती होगी यादव जी लेकिन जिनका वजूद ही जाति की वजह से है?
अन्यथा दो कौड़ी के लोग आपका तमाशा खड़ा करें, कहाँ खड़े हैं आप यह मैंने इसी फेब के पिछले पोस्ट पर लिख चुका हूँ। आपका जो कुछ हो रहा है मेरे लिये बिलकुल नया नहीं है मुझे पता था यही होना था, जो डर है वो ये कि प्रशांत भूषण आपके साथ कब तक खड़े रहेंगे।
दूसरी ओर जो आपमें संभावनाएँ देख रहे होंगे उनकी निराशा का क्या होगा, माननीय यादव जी आप जिस नैतिकता और मूल्यों की बात इनसे करते हैं बेमानी है।
मुझे नहीं लगता कि आप ऐसा कर पाएँगे पर आप ये सब उनके साथ करते जिनकी पहचान में आप भी एक कड़ी हैं तो उनका कितना भला होता, राजेन्द्र जी भी आजीवन इस व्रत का अनुपालन किये और आप ने यही कहा था कि जातीय मंचों पर जाने से क़द घटता है और वहाँ जो लोग हैं वे मिशनरी नहीं हैं!
यादव जी ! आपने इन्हें कमतर आँका ये जैसे भी थे जब आप जैसा क़ाबिल, विचारवान नेत्रित्व उन्हे मिलता और आपको भी वो लोग जिन्हें वास्तव में आप जैसे लीडर की निहायत ज़रूरत भी है पर आप इन सुविधाभोगियों के साथ खड़े हैं ये आप को नहीं पचा पाएँगे ?
नई राजनीति की राह रूकी नहीं है खुली है यादव जी आगे आईए साथ आयें भूषण जी तो उनको भी लाईए वो लोग आपका इंतज़ार कर रहे हैं जिन्हें आप से डर नहीं लगता !
बैठिएगा नहीं !
-डा. लाल रत्नाकर

साजिश में वो खुद शामिल हो ऐसा भी हो सकता है, मरने वाला ही कातिल हो ऐसा भी हो सकता है!



दिलीप मंडल उवाच !
हो गया काम, जय श्रीराम!
अरविंद पर आप चाहे जो आरोप लगा लें. लेकिन बंदा सच्चा, खरा और ईमानदार है. सीना तानकर यूथ फॉर इक्वैलिटी की मीटिंग में जाता है और रिजर्वेशन के खिलाफ बोलता है. सीना तानकर अपनी साइट पर लिखता है "Modi for MP, Arvind for CM." उसने आपको कभी धोखे मे नहीं रखा. उसने आरक्षण विरोधी आशुतोष, कुमार विश्वास, योगेंद्र यादव और आनंद कुमार को अपने साथ जोड़ा. उसने हमेशा संघी तेवर दिखाए. आपको क्या लगा था कि ये लोग मिलकर सामाजिक न्याय और सेकुलरिज्म करेंगे?
आप अपनी कमजोरी को अरविंद पर मत थोपिए. उसने आपसे कब झूठ बोला था?
आम आदमी पार्टी की साइट का जो स्क्रीनशॉट लगा रहा हूं, उससे जुड़ी, टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडिया टुडे की साइट्स से खबरों के लिंक कमेंट में लगा रहा हूं.

योगेंद्र "यादव" के नाम पर मत जाइए. दूसरी बार और बार-बार धोखा खाने वाले लोगों को लोग बहुत अजीब और बेकार नामों से पुकारते हैं,
"जात का है, इसलिए अपना है" नाम के वाद से उबरिए.
वीपी सिंह आपकी जाति के थे या कि अर्जुन सिंह? उन्होंने अपनी जाति में विलेन बन कर भी आपको रिजर्वेशन दिया था. दिया था या नहीं? OBC आरक्षण का आंदोलन कांशीराम का था, पर लागू करने की घोषणा तो वीपी सिंह ने ही की थी.
अगर कुछ नहीं किया था तो मरने के बाद आज भी उनकी बिरादरी में इनके नाम की गालियां क्यों पड़ती हैं?
उस समय के समाज कल्याण मंत्री रामविलास पासवान भी तो आपकी जाति के नहीं थे. आरक्षण विरोधियों ने घर तो उन्हीं का जलाया था. इसलिए अपनी जाति का होना ही सब कुछ नहीं है. कर्म भी देखिए.
Teflon Coating यानी कुछ भी नहीं चिपकता!!
- यादव जी लोग, किसी भी यादव नेता की तारीफ करके दिखाओ या उसे डिफेंड करो, हम तुम्हें जातिवादी बता देंगे
- SC जी लोग, किसी SC नेता की तारीफ करो, हम तुम्हें जातिवादी करार देंगे.
- कुर्मी जी लोग, किसी कुर्मी नेता की, कुशवाहा जी लोग,किसी कुशवाहा नेता की, जाट जी लोग,किसी जाट नेता को, मीणा जी लोग किसी मीणा नेता को डिफेंड करके दिखाओ, हम तुम्हें आसानी से जातिवादी ठहरा देंगे.
- OBC जी लोग, किसी OBC नेता की तारीफ करो, हम तुम्हें जातिवादी करार देंगे.
- STजी लोग, किसी ST नेता को डिफेंड करके दिखाओ, हम तुम्हें आसानी से जातिवादी ठहरा देंगे.
- मुसलमानों को तो किसी की तारीफ किए बिना भी सांप्रदायिक करार दिया जा सकता है.
यह सुविधा सिर्फ सम्माननीय अटल जी की जाति के लोगों को है, कि वे अटल जी को डिफेंड करके भी जातिवादी होने के कलंक से बचे रह सकते हैं. उन पर जातिवादी होने का कोई आरोप चिपकता ही नहीं. क्या सुविधा है बॉस!!
(अटल जी के सम्मान में लिखी मेरी पोस्ट पर आई टिप्पणियों के आधार पर मन में आया ख्याल)
ओम थानवी उवाच !
सोशल फोरम के आखिरी दिन बोलना था। लोकतंत्र की चर्चा में आयोजकों ने कहा कि 'आप' पार्टी के प्रयोग पर बोलें तो अच्छा। बोल दिया। अनवरत इस पसोपेश में रहते हुए कि सफलता पर केंद्रित रहूँ या विफलता पर! क्या इस घमासान और मारकाट को दलीय राजनीति की स्वाभाविक परिणति मानें? गांधी के स्वराज से पहचान बनाने वाले केजरीवाल का साले-कमीने वाला नेतृत्व क्या सामान्य विचलन है?
इससे हटकर एक और अहम फिक्र - 67 विधायकों की अलग पार्टी बना लेने का 'विचार' किस तरह लोकतान्त्रिक ठहराया जा सकता है, जब बयान में ध्वनि ऐसी हो जैसे बाकी 66 नेता जन-प्रतिनिधि नहीं, जेबी संपत्ति सरीखे हों। पूछ-पूछ कर राजनीति करने का नायाब लोकतंत्र गढ़ने वाला शख्स अपने विधायकों से पूछे बगैर उनके "साथ" एक पार्टी छोड़कर दूसरी के गठन की बात करे तो वह किस किस्म के स्वराज की राह पर है? जनता पार्टी की सफलता अढ़ाई बरस इतराई। 'आप' की सफलता कितनी मोहलत लेकर आई है? जनता पार्टी के प्रयोग ने दक्षिणपंथी राजनीति का मार्ग प्रशस्त किया - भाजपा का गठन और पनपना उसी प्रयोग की परिणति थी। 'आप' की सौगात क्या है - जब असल विचार को भीड़ों के बल धकेल दिया गया हो?


गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

लेकिन कब तक?

'हम दल साथ-साथ हैं', लेकिन कब तक?
फ़ैसल मोहम्मद अली

बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
समाजवादी विचारधारा से जुड़े दलों के विलय की गाड़ी शायद अभी तीसरे गियर में भी नहीं पहुंची कि सवाल शुरू हो गए हैं कि वो कितनी दूर तक चल पाएगी?
सवालों का ये दौर बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की प्रेस कांफ्रेस में ही शुरू हो गया था.
नीतीश कुमार ने ये जानकारी दी कि छह राजनीतक दलों की बैठक में फैसला हुआ है कि मुलायम सिंह यादव सभी से बातचीत कर पार्टियों के साथ आने की प्रक्रिया की रूपरेखा तैयार करेंगे.
नीतीश से पूछा गया कि क्या समाजवादी विचारधारा के ये दल भारतीय जनता पार्टी या नरेंद्र मोदी के डर से साथ आ रहे हैं? पार्टी का नेता कौन होगा? नाम क्या होगा नए दल का?
‘बीजेपी के लिए चुनौती हो सकती है’
ये दल पहले भी कई दफ़ा साथ आ चुके हैं लेकिन असहमतियां इतनी अधिक रहीं कि ज़्यादा दूर साथ चल नहीं पाए.
राजनीतिक विश्लेषक नीरजा चौधरी कहती हैं कि सैद्धांतिक रूप से इन दलों का साथ आना विपक्ष को मज़बूत करेगा क्योंकि बीजेपी को लोकसभा चुनावों में मात्र 31 प्रतिशत वोट मिले थे यानी बाक़ी के 69 फ़ीसदी मत उसके विरोध में थे.
इन दलों के अलग-अलग होने की वजह से बीजेपी को बड़ी तादाद में सीटें हासिल हुईं.
नीतीश कुमार ने संकेत दिए कि जो छह दल बैठक में शामिल हुए उनके अलावा दूसरे क्षेत्रीय दल भी इस फ्रंट का हिस्सा हो सकते हैं.
मुलायम-अखिलेश
हालांकि वो ये साफ नहीं कर पाए कि वो नए दल का हिस्सा होंगे या फिर सब मिलकर किसी तरह का कोई फ्रंट तैयार करेंगे.
जो दल बैठक में शामिल हुए उनमें समाजवादी पार्टी, जनता दल यूनाइटेड के अलावा इंडियन नेशनल लोकदल, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल सेक्यूलर और समाजवादी जनता पार्टी के नेता शामिल थे.
झारखंड चुनाव में अलग अलग क्यों?
कुछ लोग ये भी सवाल कर रहे हैं कि अगर दूसरे दल भी समाजवादियों के इस गठजोड़ में साथ आना चाहते हैं तो फिर झारखंड के चुनाव में ये दल साथ मिलकर क्यों नहीं लड़ रहे?
बिहार में लोकसभा चुनावों के बाद हुए उपचुनावों में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार साथ आए थे जिसका नुक़सान बीजेपी को उठाना पड़ा.
यहीं पर सवाल ये भी उठता है कि क्या कभी उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और बहुजन समाज पार्टी की मायावती साथ-साथ आ सकते हैं?
नीतीश कुमार लालू प्रसाद यादव
बिहार उपचुनावों में नीतीश और लालू का गठजोड़ बीजेपी को नुक़्सान पहुँचा चुका है.
राजनीतिक विश्लेषक उर्मिलेश कहते हैं कि इस सच को सभी मान चुके हैं कि सिर्फ़ कोई चमत्कार ही यूपी में मुलायम और माया को साथ ला सकता है!
जो दल साथ आने की कोशिश में हैं उनमें से कई के पास तो संसद में कोई सीट ही नहीं लेकिन सभी की सीटें मिला दी जाएं तो ये लोकसभा में 15 के आंकड़े को पहुंचती है.
आम चुनावों में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बेजपी ने इन सभी दलों को उनके गढ़ कहे जाने वाले इलाक़ों में बुरी तरह पछाड़ा था.
मोदी के ख़िलाफ़ कौन?
नीरजा चौधरी कहती हैं कि 2014 में बीजेपी की जीत को भ्रष्टाचार के ख़िलाफ लोगों के ग़ुस्से के साथ-साथ नरेंद्र मोदी के शक्तिशाली नेतृत्व की जीत भी थी.
लेकिन इस नए दल में मोदी के ख़िलाफ़ वो किस नेता को पेश करेंगे?
कांग्रेस नेतृत्व वाली मनमोहन सिंह सरकार के दौर में रुके फ़ैसलों और भ्रष्टाचार के सवाल को मनमोहन सिंह गठबंधन की राजनीति की मजबूरी कहते रहे.
लोग क्या उस बात को इतनी जल्दी भूल जाएंगे?
एक सवाल ये भी है कि बदले भारत में नए दल के पास वोटर को ऑफर करने के लिए कौन सी योजना होगी जिससे वो मोदी की बीजेपी के विकल्प के तौर पर पेश करेंगे.
इन सबसे परे सवाल और भी हैं जैसे मुलायम पिछले दिनों अपनी राजनीतिक ज़मीन बिहार में पसारना चाहते हैं क्या लालू-नीतीश उसे पसंद करेंगे?
एक फर्क़ है इस बार
सपा में जिस तरह का परिवारवाद है उसका क्या होगा? साथ ही इस प्रस्तावित फ़्रंट के अहम नेता लालू प्रसाद यादव भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जेल जा चुके हैं और कई के ख़िलाफ़ इस तरह के मामले चल रहे हैं.
तो क्या ये सब जनता को मान्य होंगे या फिर ये लोग अगर बीजेपी पर आरोप लगते हैं तो उन्हें किस तरह उठा पाएंगे?
समाजवादी विचारधारा के दलों के हालांकि इस बार साथ आने में एक बात भिन्न है.
पहले जब आपातकाल के बाद तैयार हुई थी तो उस समय जनसंघ पार्टी (जो बाद में बीजेपी बनी) इसका हिस्सा थी.
साल 1987 में भी वीपी सिंह के नेतृत्व में बनी सरकार को बीजेपी का समर्थन हासिल था.
तब ये गठबंधन कांग्रेस के ख़िलाफ़ तैयार हुए थे. अब बीजेपी उनकी मुख्य राजनीतिक प्रतिद्वंदी है.

जनता परिवार: इतिहास का मज़ाक़िया दोहराव?

  • 7 नवंबर 2014


सपा प्रमुख के घर जुटे जनता दल परिवार के नेता

लोकसभा चुनाव में भाजपा के हाथों मिली करारी हार के बाद बिखरे हुए जनता दल परिवार के नेता गुरुवार को दिल्ली में मिले.
सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के घर पर हुई बैठक के बाद बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बताया कि जनता परिवार में एकता बनाने का प्रयास शुरू किया गया है. उनका कहना था कि यह प्रयास आगे भी जारी रहेगा.

पत्रकार उर्मिलेश का विश्लेषण

एकता के प्रयास

कभी जनता दल में रहे सभी गुटों की एकता के नाम पर भारत की समकालीन राजनीति में एक बार फिर इतिहास को दोहराने की कोशिश हो रही है. अभी यह कहना कठिन है कि इस बार यह एक और त्रासदी साबित होगी या प्रहसन!
एकता-प्रयास की इस बैठक में गुरुवार को समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल(यू), जनता दल(एस) और इंडियन नेशनल लोकदल के नेता शामिल हुए.


नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव

भविष्य में कुछ और समूहों को भी इसमें शामिल करने की योजना है.
बैठक का एजेंडा पहले के एकता-प्रयासों से इस मायने में अलग था कि इस बार इन दलों के बीच सिर्फ़ एक - गठबंधन या मोर्चे के तहत काम करने तक ही सीमित नहीं रही, निकट भविष्य में सभी गुटों-दलों के विलय से किसी एक नए एकीकृत दल के गठन के प्रस्ताव पर भी व्यापक सहमति बनाई गई.

एकता या विलय

समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव, पूर्व प्रधानमंत्री और जनता दल (एस) नेता एचडी देवगौड़ा और जनता दल (यू) अध्यक्ष शरद यादव व नीतीश कुमार विलय के पक्ष में बताए जा रहे हैं.


मुलायम सिंह यादव और अन्य नेता
ममता बनर्जी ने मुलायम सिंह को सर्वाधिक गैरभरोसेमंद नेता बताया था.

उधर राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद और इनेलो के दुष्यंत चौटाला ने एकता के प्रति अपनी वचनबद्धता तो दोहराई लेकिन ये दोनों नेता विलय के मामले में कुछ और वक़्त चाहते हैं.
शायद दोनों दल विलय के प्रस्ताव को हरी झंडी देने से पहले अपने संगठन के अंदर कुछ और चर्चा कर लेना चाहते हैं.
एकता बनाने के प्रयास में जुटे इन दलों के पास लोकसभा में कुल 15 सदस्य हैं. 2014 के संसदीय चुनाव में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा ने इन सबको उनके अपने-अपने सूबों में बुरी तरह पछाड़ा.


मुलायम सिंह यादव

इसमें कोई दो राय नहीं कि मोदी के राजनीतिक अभ्युदय और केंद्र की भाजपा-नीत सरकार के कामकाज की नई शैली ने पुराने जनता दल के सभी नेताओं को अपने राजनीतिक वजूद और इन दलों के भविष्य पर नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर किया है.
मोदी के राजनीतिक प्रभामंडल का बढ़ता दबाव ही इन दलों की एकता या विलय-पहल के पीछे की मुख्य प्रेरक शक्ति है. इसके अलावा इनके अपने बचे हुए जनाधार का भी दबाव होगा.

घटनाओं से सीख

एकता प्रयास की राजनीति को समझने के लिए लोकसभा चुनाव के बाद के दो महत्वपूर्ण घटनाक्रमों को भी देखा जाना चाहिए. इनका भी इन नेताओं पर असर पड़ा होगा.


मुलायम सिंह यादव और मायावती

पहला घटनाक्रम है, बिहार और यूपी के उपचुनावों में भाजपा के दिग्विजय-रथ का बुरी तरह थम जाना. दूसरा है, महाराष्ट्र और हरियाणा में कांग्रेस को शिकस्त देते हुए भाजपा का विजयी होना. मतलब साफ़ दिखा कि आमने-सामने की लड़ाई में जनता दल परिवार यूपी-बिहार में भाजपा को रोक सकता है.
बिहार के उपचुनावों नीतीश और लालू साथ मिलकर लड़े थे, जबकि लोकसभा चुनाव में वे अलग-अलग थे. यूपी में हुए उपचुनाव में बसपा ने प्रत्याशी नहीं दिए थे.
उपचुनावों के तत्काल बाद लालू ने पटना से बयान जारी किया कि यूपी में भी आगे से मुलायम को मायावती से मिलकर लड़ना चाहिए, जैसा बिहार में हमने किया. पर उस वक़्त मुलायम ने लालू के बयान को ख़ास तवज्जो नहीं दी. मायावती ने भी इसे व्यर्थ बताया.
इस सच को सभी मान चुके हैं कि सिर्फ़ कोई चमत्कार ही यूपी में मुलायम और माया को साथ ला सकता है!

फ़ायदे का गणित



मुलायम सिंह यादव और अन्य नेता

मुलायम को अपने पुराने जनतादल सहयोगियों से मिलकर एकीकृत दल बनाने के फ़ायदे का गणित फ़िलहाल अच्छा लगा. लेकिन राजनीति में अंकों का गणित हमेशा कारगर साबित नहीं होता. एकता के रसायनशास्त्र की भी ज़रूरत होती है. क्या वह मौजूदा एकता-प्रक्रिया में नज़र आ रही है?
अतीत को खंगालें तो जनता दली या दलीय कुनबे के एकता-प्रयासों में मुलायम की 'विश्वसनीयता' सबसे कमज़ोर कड़ी है. सन 2004 के बाद उन्होंने या अन्य राजनीतिक घटकों ने मुद्दा-आधारित गठबंधन या मोर्चे के जितने प्रयास किए, उन्हें ध्वस्त करने का सर्वाधिक श्रेय मुलायम को जाता है.
यूपीए-1 कार्यकाल में सपा, इनेलो, टीडीपी, नेशनल काफ्रेंस, एजीपी आदि ने मिलकर युनाइटेड नेशनल प्रोग्रेसिव एलायंस (यूएनपीए) बनाया. कुछ ही महीने बाद 2008 में मुलायम ने यूपीए और न्यूक्लियर डील के समर्थन के सवाल पर उसे ध्वस्त कर दिया. वह अचानक यूपीए-डील के समर्थन में चले गए.
साल 2012 में राष्ट्रपति चुनाव के दौरान ममता बनर्जी और अन्य विपक्षी नेताओं के साथ उनकी मोर्चेबंदी हुई पर वह भी कुछ घंटे से ज़्यादा नहीं टिकी. ममता ने उन्हें सर्वाधिक ग़ैरभरोसेमंद नेता बताया.

मोर्चे का भविष्य



नरेंद्र मोदी और अमित शाह

ऐसे में सवाल उठना लाज़िमी है, नई मोर्चेबंदी या एकीकृत दल अगर अस्तित्व में आते भी हैं तो उसका नेतृत्व कौन करेगा? अतीत के विघटन-तोड़फोड़ की जनता दल की आदतों से वह कितना बच सकेगा, उसका अपना एजेंडा क्या होगा?
आर्थिक नीति के स्तर पर कांग्रेस, भाजपा, सपा आदि के बीच ज़्यादा फ़र्क़ नहीं रह गए हैं. कमोबेश तीनों दल बड़े कारपोरेट और मध्यवर्ग के हितों पर ख़ास ध्यान देते हैं. ऐसे में क्या नया दल या गठबंधन नरेंद्र मोदी की सरकार और भाजपा की आर्थिक नीति का वैकल्पिक मॉडल सुझाए बग़ैर अपने जनाधार के बीच समर्थन जुटा सकेगा?
उल्लेखनीय है कि इन दलों का बड़ा जनाधार पिछड़े, अल्पसंख्यक और कुछेक दलित समुदायों में है. नेतृत्व और नीतिगत मसलों पर किसी नएपन के बग़ैर काठ की हांडी बार-बार चूल्हे पर कैसे चढ़ेगी?
नई राजनीतिक सोच और भरोसेमंद नेतृत्व के अभाव में इस तरह की जमावड़ेबंदी से सिर्फ़ इतिहास का एक मज़ाक़िया दोहराव होगा. नया करना है तो नई राजनीतिक अंतर्वस्तु भी चाहिए.

शनिवार, 6 सितंबर 2014

अगली पहल……………

मित्रों नमस्कार!

अत्यंत विनम्रता के साथ आपसे आग्रह करना है की मेरी आवाज आपतक नहीं पहुंची या और किन्ही कारणों से हम उस बात पर भरोसा तो किये जिसमें सदियों की साजिश थी, साजिश का सौदागर था या हमारे बीच का लिंक ख़राब था, जो भी हो उसका अब कोई इलाज़ नहीं है.

आने वाले दिनों में कई समझौते होने हैं पर उनका केंद्र आपके हाथ नहीं होगा फिर हम फसेंगे और उसी प्राकांतर के अभिशाप के बसीभूत होंगे जो अब तक के राजनैतिक और सामाजिक बदलावों में हुए हैं. छोटे ही सही अनेकों उदाहरण है जिनसे हम देख सकते हैं की मूल तत्वों पर वही आघात करते हैं जिन्हे डर है की उनका वर्चस्व ही न समाप्त हो जाय कहीं।
मैंने इस अभियान को आरम्भ करते हुए ये उद्देश्य लेकर चला था कि -

आदरणीय
यह अभियान ब्लागर के माध्यम से एक विल्कुल अव्यवसायिक अराजनैतिक मात्र सामाजिक बदलाव के उद्येश्य से किया जा रहा प्रयास है, 2 0 1 4 का जिक्र उस प्रक्रिया की वजह से किया जा रहा है जिसमें सामजिक सरोकार बनते और बिगड़ते हैं।
सामाजिक जुडाव का सुअवसर मिलता है।
बुरे के खिलाफ खड़े होने का अवसर भी।
भारत गनराज्य की एकता अखण्डता का पर्व होता है 'आम चुनाव'.
इसी उद्येश की पूर्ति सजग अवाम से अपेक्षित भी है.
इसी उद्येश्य से संमसामयिक सन्दर्भों का हवाला लेना होगा अन्यथा सबकुछ  सकता है, 

"भारत वर्ष में दलितों पिछड़ों की राजनितिक विडम्बना ही यही है की ये बदलाव की बात तो करते हैं पर इन्हें पता ही नहीं है कि ये बदलाव होंगे कैसे" जिस अवाम को ये धोखे में रखकर आज उनकी सहानुभूति बटोरकर अपनी जागीर बनाने में लगे हैं, यही तो सवर्ण और पूंजीवादी निति है. अम्बेडकर और लोहिया के नामपर 'रोटियां' सेकने वाले उन्ही के नियमों की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं. और संपदा संरक्षण में सबको मात देने में लगे हैं, जबकि सारे हालात इसी तरह के हैं पर इन्हें ही बदनामियाँ झेलनी हैं.
सवर्ण मीडिया कभी सोनिया का किचन और डाइनिंग हाल नहीं दिखाता लेकिन मायावती की सारी जागीर अखबारों के पन्ने पन्ने पर है.
सैफई का उत्सव क्या हो गया जैसे कोई अनरथ हो गया हो (सता में हैं तो कोई साधू संत तो हैं नहीं) कुछ तो करेंगे ही - इन्ही की माधुरी दीक्षीत इन्ही के सलमान खान क्या ! इनको लगा इनकी जागीर लूट ली है, सैफई वालों ने 'असभ्य बनाए रहने की साजिशन वहां के नवजवानों को बंधक क्यों बनाए रखना चाहता है मीडिया।
दिल्ली में सरे आम बुढिया विदेशी औरतों तक के साथ दुराचार करने वाले कौन हैं क्या इन्हें इटली से लाया गया है।" नहीं ये वही लोग हैं जो भ्रष्टाचार मिटाने वाली पार्टी 'आप' के मतदाता हैं.

न जाने कितने कालेजों और विश्वविद्यालयों यहाँ तक की बिदेशों में भी इनके जातिवाद के तार जुड़े हैं जहाँ ये पिछड़ों और दलितों की इंट्री को बाधित करते हैं। 

बुधवार, 2 जुलाई 2014

"धर्म जनता को सुलाने वाला रसायन है"

  • Ravindra Kant Tyagi Muaafi ke sath Dr.Lal Ratnakarsahab agade pichde ki is lakeer ko jinda rakhme me jitna sahyog unka hai utna hi aapka bhi hai.
  • Omprakash Kashyap जिन आदि शंकराचार्य ने भारत में चार स्थानों पर पीठ स्थापित किए थे, वे इस देश के महान दार्शनिक थे. हैरानी की बात है कि उन्हीं के उत्तराधिकारी एक सामान्य पुरोहित जैसा वर्ताव कर रहे हैं. वही क्यों टेलीविजन पर जितने भी उनके समर्थक बहस में उतरे हैं, उन्हें देखकर तो लगता ही नहीं कि वे अपने दर्शन—ग्रंथों को पढ़ने की जहमत उठाते हैं. 
    धर्म उनके लिए जीवनशैली नहीं 'दंड' है, जिससे वे लोगों को हांकना चाहते हैं.
  • Dr.Lal Ratnakar माफ़ी का सवाल नहीं है त्यागी जी यह समाज का ज्वलंत मुद्दा है और इसे ही ठीक करने के लिए सामजिकता मंत्रालय है परन्तु दुर्भाग्य है की हमारे कथित संत महात्मा अपनी असलियत छुपाये समाज को ठग रहे हैं ! इसमें आप मुझे इस रूप में न घसीटें मैं जो देखता हूँ कह देता हूँ उसे छुपाता नहीं और आप को भी इसी विचार का समर्थक मानता हूँ। यही बात हर एक के साथ है जो जहाँ है वहीँ उनकी तरह ही खड़ा है वह मैं या आप हों कोई अलग नहीं दीखता।
  • Ravindra Kant Tyagi माननीय डॉक्टर साहब मेरा उद्देश्य व्यक्तिगत तोर पर आपको कुछ कहना नहीं है। मैं सिर्फ ये अर्ज करना चाहता हूँ की हिन्दू एक धर्म है जो सैकड़ों साल से एक ऐसी दीवार है जिसपर न जाने कितने लोग आये और अपनी इबारत लिख कर चले गए। यकीनन दीवार इतनी दागदार हो गई की उसका मूल अस्तित्व धूमिल हो गया। अब क्या हमारा कर्त्तव्य ये नहीं कि इसे साफ़ करने का प्रयास करें न की मुह फेर लें। 
    अगड़ा पिछड़ा दलित सवर्ण कोढ़ की तरह हिन्दू धरम के अंग अंग को चाट रहा है किन्तु पूरी सहृदयता के साथ ये स्वीकार करने में मुझे कोई गुरेज नहीं है की ये मर्ज धीरे धीरे काम हो रहा है और इसे पूरी तरह समाप्त करने में दोनों पक्षों को सामान रूप से प्रयास करना होगा। हम बार बार इसे कुरेद कर समाधान नहीं निकल सकते।
  • Dr.Lal Ratnakar मान्यवर ! जी आपके कथन में जो तथ्य व् तत्व हैं उसे नकारा नहीं जा सकता ! पर मुझे वहां कोई अड़ंगा खड़ा करना वाजिब नहीं लगता, पर जिन नेताओं ने इसे भड़काया आज वही उसका दोहन कर रहे हैं ! 
    यहाँ पं. द्वारिका प्रसाद मिश्रा के "मिश्र शतक" ये पंक्तियाँ याद आती हैं -
    कलाकार देता नहीं युगधारा का साथ 
    बहती गंगा में नहीं धोता है वह हाथ। 
    मेरे कई दोस्त मुझे मेरी जाती से जोड़कर जिस तरह से इस रूप में घसीटते नज़र आते हैं उनकी दृष्टि को क्या कहूँ ! जबकि वे अत्यंत निहायत चातुर्यभाव से अभिभूत 'दमन' की नव अवधारणा का घात पर प्रतिघात से लावलब होते जाते हैं, तद्परांत मेरे जैसे मित्र को जो सजा देते हैं उसका स्वाद आपको कैसे बताऊँ !
    मेरे धर्म पर कोई हमला नहीं कर सकता मेरा मानना है धर्म चरित्र से तय होता है, चरित्रवान बने रहने के लिए धर्म सहायक होता है !
  • Dr.Lal Ratnakar धर्म के और बहुतेरे क्षेत्र हैं जहाँ मुझे किसी की उपस्थिति प्रभावित नहीं करती, हम भयभीत क्यों हैं कि धर्म का अपमान या लोग अधार्मिक होते जा रहे हैं विकास की बहुतेरी धारा ही धर्म के बहुतेरे मानक को तोड़ते जाते हैं, अब विकास का वरन करें या धर्म को धारण कर "असुविधाओं" के मकड जाल में उलझे रहें दोनों दशाओं में हमें एक नवीन मार्ग तो ढूढना ही होगा ! जो धर्म हज़ारों हज़ार को अछूत बनाता हो, दरिद्दर बनाता हो, अशिक्षित बनाता हो, उंच नीच का अभिमान खड़ा करता हो, अनेक अवसरों पर रोकता हो या असमानता को बढ़ाता हो उसे कैसे सबका धर्म कहेंगे !
    -डॉ. लाल रत्नाकर
  • Ravindra Kant Tyagi To kya dharam ko chod den ya badal len .Uma bharti ko savdhan karte hue aap ye bhool rahe hain ki Narendr modi bhi usi varg se ate hain.
  • Dr.Lal Ratnakar महोदय ! मुझे क्यों उमा का सहायक बना रहे हैं उमा जी विदुषी हैं आदरणीय प्रधानमंत्री जी की जाती पर क्यों जाते हैं ये सब धार्मिक लोग हैं और मैं भी धर्म से विलग थोड़े ही हूँ ! मैंने ऊपर के ही क्रम में बात को थोड़ा सा जोड़ा भर है !
  • Dr.Lal Ratnakar https://www.facebook.com/raghuvinder.yadav?fref=ufiजी बिलकुल सही कहा| किसी विद्वान ने कहा है-"धर्म जनता को सुलाने वाला रसायन है" इस रसायन का शातिर लोग अपने हक में उपयोग कर रहे हैं और नासमझों का शोषण.