बुधवार, 8 मई 2013

रेवड़ियाँ

रेवड़ियाँ बंटते ही बदला नजारा -
(सत्ता मद में जब दिखाई नहीं देता - स्वार्थ ही स्वार्थ घेरे रहता है यही कारण है की सारा समय ऐसो आराम में निकल जाता है)
उत्तर प्रदेश में प्रतिभा का तो मतलब ही नहीं है, संज्ञान में आया है की कई ऐसे संस्थानों के अध्यक्ष/उपाध्यक्ष ऐसे लोगों को बनाया गया है जिनका उस विधा से दूर दूर तक कोई ताल्लोक नहीं है। इतना फूहड़ प्रदर्शन किसी सरकार में नहीं हुआ होगा।
आखिर क्यों करते हैं ये ऐसा ? यही सवाल बार बार दिमाग में आता है अंततः ये मुरख खल .........आदि  आदि कहकर शांत होना ही सुखकर है। (चंचल की बात भी सही है की ये सरकार है) 
वाह उत्तर प्रदेश सरकार के 'ओहदेधारी' क्या चकाचक 'लालबत्ती' वाली फूलों से लदी सरकारी कार और गाँव गली और चौराहे की सड़कें और स्कवाएड करता पुलिस दस्ता लोग 'चहककर कहते फलनवा' जा रही है। शिवपाल ने मंत्री का दर्ज़ा दिया है 'संगीत और कला की मंत्री बनाया है' जो सुभाष पांडे थे पिछली सरकार में 'अचरज' इसलिए नहीं हो रहा था, शायद यही यहाँ की अवाम के लिए सुखद था उनकी नजर में वे इसे 'इसी को 'भाग्य' कहते हैं' "पिछलि सरकार में यही हाल था उत्तर प्रदेश राज्य ललित कला अकादमी का और इस सरकार में 'वही' हाल 'उपाध्यक्षा' जिस तरह से गाँव में लोकप्रियता और स्वागत प्राप्त कर रही हैं सचमुच भाग्यशाली ही हैं। पर कला और कला अकादेमी के लिए यह कहना उपयुक्त होगा की - भैंस के आगे बिन बजाये, भैंस खड़ी पगुराय।।
काश ये संस्थायें अपनी नियति को उजागर कर पातीं और 'समाज' तक पहुंचता इनका असली स्वरुप समाजवादी तरीके से। लेकिन दुर्भाग्य यही है की इन्होंने बिलकुल वही किया जों अब तक तिकड़मों से सारी संस्थाओं में होता आया है। तब यहाँ वो बैठे जिन्हें हुनर था कि सबकुछ केवल और केवल अपनों के लिए ही  है, पर अब जो आये हैं वे क्या करेंगें।

ईश्वर जानें .
टिपण्णी -
Omprakash Kashyap आपने हकीकत बयान की है रत्नाकर जी. ये लोग समाजवाद का नारा देकर सत्ता में आए हैं. समाजवाद में वैज्ञानिकता के समर्थक माकर्स का मानना था कि बदलाव की बात बहुत हो चुकी, आवश्यकता बदलाव लाने की है. राजनीति की विडंबना ही यही है कि यहां सत्ता में आने के साथ ही बदलाव लाने का संकल्प भुला दिया जाता है. सत्ता केवल एक चरित्र जानती है, वह है शासक का. सुविधाओं को हड़पकर समाज के बड़े वर्ग को सत्ता और संसाधनों से बेदखल कर देने का. 

आपकी कविताएं और टिप्पणियां देखता रहता हूं. उनमें सच्चे कलाकार की सदभावनाएं झलकती हैं, जो किसी भी वर्ग—भेद से परे, केवल लोककल्याण की सोचता है. जो सही मायने में बदलाव का समर्थक है. कुछ हटकर सोचना—पढना अच्छा लगता है. उम्मीद भी इसी से है.

गुरुवार, 2 मई 2013

राजनैतिक होने के खतरे बहुत हैं

बहन जी और नेता जी को ब्राह्मण मोह होने के कारण उनका दलितों और पिछड़ों से मोह घट रहा है, या यूँ कहें की ये दलितों और पिछडों को अपनी जागीर समझते हैं।
उत्तर प्रदेश का सच ये है की मा-कांशीराम (के दलित मूवमेंट) ने कांग्रेस के पम्परागत वोटर काटकर अलग किये और राज्य का राजनैतिक स्वरुप बदला कांग्रेस ख़तम हो गयी ब्राहमणों की बची खुची राजनीति को वी-पी - सिंह की 'लहर' ने ख़त्म किया।
कहीं से भाजपा ने कुछ ब्राह्मणों को बटोरा या कहें इनको यहाँ संभावानाएं दिखीं और ये सब इधर एकजूट हुए पर यह मामला स्थायी नहीं लगा देश के बहुतेरे हिस्से से अन्य जातीय समीकरणों ने ब्राह्मणों की सत्ता की चुनौती को स्वीकार नहीं किया और 'नागपुर' के अलावा अन्य 'सवर्ण' जातियों को भी संभवतः ये रास नहीं आये और इन्हें किनारे कर दिया।
"जाएँ तो जाएँ कहाँ" की हालत में 'बहन' जी का दामन पकड़ा और पुनः उत्तर प्रदेश की राजनीति में 'दखल' की पुरजोर साजिश हासिल की। (साजिश इसलिए की सत्ता के भूखे ये इस नए समीकरण में दाखिल हुए) यह प्रयोग बहनजी को भी भा गया, पर इस अभियान से दलित बुद्धिजीवी और अफसर दोनों सशंकित था की यह 'समीकरण' जिसे किसी तरह तोड़ा गया था। पुनः उसी समीकरण में वापसी इतनी भयावह होगी इसका अंदाजा तब लगा जब लूट की सारी जिम्मेदारी बहन जी के मत्थे आयी। (इस काल के घोटालों की लिस्ट में नामों को देखा जा सकता है)
यदि यही सब चलता रहा तो आज की प्रातः कालीन बहस का यह विन्दु की 'दलित और पिछड़े एक नहीं होने दिए जायेंगे' की चुनौती में दम दीखता है, क्योंकि जिस तरह से दोनों नेताओं में ब्राह्मणों में घुसपैठ की होड़ लगी है, उससे तो यह बात और प्रभावी हो जाती है, जो चिंता का विषय तो है पर संभावनाएं  यहीं समाप्त नहीं हो जातीं, पिछड़ों के अगड़े और दलितों के सुविधाभोगी मूल रूप से इस आन्दोलन के लिए खतरनाक साबित होंगें जबकि इन्ही से आशा की जाती है की ये ही आन्दोलन को आगे ले जा सकते हैं।
अब सवाल है की यह आन्दोलन जीवित तो है, संभावित भी है संयोजन कैसे हो, किसका कितना हिस्सा हो राज्य में या आन्दोलन में, यहीं से इमानदारी और त्याग की जरूरत दिखती है। अब पहल कहाँ से हो कौन आगे आये क्रियान्वयन के लिए।
इस आन्दोलन की शकल राजनैतिक होने के खतरे बहुत हैं आंतरिक और वाह्य दोनों, इनसे उबरना होगा अब जैसे जो नए पिछड़े बने हैं उनकी इस सामजिक आन्दोलन के प्रति उतनी इमानदारी नहीं है, सबकी अपनी समस्याएं भी हैं उनका  निदान कैसे हो।
यह सब मुद्दे हैं जिनपर हमें कार्य योजना बनानी है इसके विशेषग्य अपनी राय दें तो यह आन्दोलन आगे आ सकता है, नेत्रित्व की भी आवश्यकता होगी जिसे आर्थिक मदद भी जुटानी होगी इन सबसे जटिल होगा बुद्धिजीवियों का विश्वास हासिल करना और बिकने वालों से बचना भी। 
-संयोजक