गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

लेकिन कब तक?

'हम दल साथ-साथ हैं', लेकिन कब तक?
फ़ैसल मोहम्मद अली

बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
समाजवादी विचारधारा से जुड़े दलों के विलय की गाड़ी शायद अभी तीसरे गियर में भी नहीं पहुंची कि सवाल शुरू हो गए हैं कि वो कितनी दूर तक चल पाएगी?
सवालों का ये दौर बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की प्रेस कांफ्रेस में ही शुरू हो गया था.
नीतीश कुमार ने ये जानकारी दी कि छह राजनीतक दलों की बैठक में फैसला हुआ है कि मुलायम सिंह यादव सभी से बातचीत कर पार्टियों के साथ आने की प्रक्रिया की रूपरेखा तैयार करेंगे.
नीतीश से पूछा गया कि क्या समाजवादी विचारधारा के ये दल भारतीय जनता पार्टी या नरेंद्र मोदी के डर से साथ आ रहे हैं? पार्टी का नेता कौन होगा? नाम क्या होगा नए दल का?
‘बीजेपी के लिए चुनौती हो सकती है’
ये दल पहले भी कई दफ़ा साथ आ चुके हैं लेकिन असहमतियां इतनी अधिक रहीं कि ज़्यादा दूर साथ चल नहीं पाए.
राजनीतिक विश्लेषक नीरजा चौधरी कहती हैं कि सैद्धांतिक रूप से इन दलों का साथ आना विपक्ष को मज़बूत करेगा क्योंकि बीजेपी को लोकसभा चुनावों में मात्र 31 प्रतिशत वोट मिले थे यानी बाक़ी के 69 फ़ीसदी मत उसके विरोध में थे.
इन दलों के अलग-अलग होने की वजह से बीजेपी को बड़ी तादाद में सीटें हासिल हुईं.
नीतीश कुमार ने संकेत दिए कि जो छह दल बैठक में शामिल हुए उनके अलावा दूसरे क्षेत्रीय दल भी इस फ्रंट का हिस्सा हो सकते हैं.
मुलायम-अखिलेश
हालांकि वो ये साफ नहीं कर पाए कि वो नए दल का हिस्सा होंगे या फिर सब मिलकर किसी तरह का कोई फ्रंट तैयार करेंगे.
जो दल बैठक में शामिल हुए उनमें समाजवादी पार्टी, जनता दल यूनाइटेड के अलावा इंडियन नेशनल लोकदल, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल सेक्यूलर और समाजवादी जनता पार्टी के नेता शामिल थे.
झारखंड चुनाव में अलग अलग क्यों?
कुछ लोग ये भी सवाल कर रहे हैं कि अगर दूसरे दल भी समाजवादियों के इस गठजोड़ में साथ आना चाहते हैं तो फिर झारखंड के चुनाव में ये दल साथ मिलकर क्यों नहीं लड़ रहे?
बिहार में लोकसभा चुनावों के बाद हुए उपचुनावों में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार साथ आए थे जिसका नुक़सान बीजेपी को उठाना पड़ा.
यहीं पर सवाल ये भी उठता है कि क्या कभी उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और बहुजन समाज पार्टी की मायावती साथ-साथ आ सकते हैं?
नीतीश कुमार लालू प्रसाद यादव
बिहार उपचुनावों में नीतीश और लालू का गठजोड़ बीजेपी को नुक़्सान पहुँचा चुका है.
राजनीतिक विश्लेषक उर्मिलेश कहते हैं कि इस सच को सभी मान चुके हैं कि सिर्फ़ कोई चमत्कार ही यूपी में मुलायम और माया को साथ ला सकता है!
जो दल साथ आने की कोशिश में हैं उनमें से कई के पास तो संसद में कोई सीट ही नहीं लेकिन सभी की सीटें मिला दी जाएं तो ये लोकसभा में 15 के आंकड़े को पहुंचती है.
आम चुनावों में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बेजपी ने इन सभी दलों को उनके गढ़ कहे जाने वाले इलाक़ों में बुरी तरह पछाड़ा था.
मोदी के ख़िलाफ़ कौन?
नीरजा चौधरी कहती हैं कि 2014 में बीजेपी की जीत को भ्रष्टाचार के ख़िलाफ लोगों के ग़ुस्से के साथ-साथ नरेंद्र मोदी के शक्तिशाली नेतृत्व की जीत भी थी.
लेकिन इस नए दल में मोदी के ख़िलाफ़ वो किस नेता को पेश करेंगे?
कांग्रेस नेतृत्व वाली मनमोहन सिंह सरकार के दौर में रुके फ़ैसलों और भ्रष्टाचार के सवाल को मनमोहन सिंह गठबंधन की राजनीति की मजबूरी कहते रहे.
लोग क्या उस बात को इतनी जल्दी भूल जाएंगे?
एक सवाल ये भी है कि बदले भारत में नए दल के पास वोटर को ऑफर करने के लिए कौन सी योजना होगी जिससे वो मोदी की बीजेपी के विकल्प के तौर पर पेश करेंगे.
इन सबसे परे सवाल और भी हैं जैसे मुलायम पिछले दिनों अपनी राजनीतिक ज़मीन बिहार में पसारना चाहते हैं क्या लालू-नीतीश उसे पसंद करेंगे?
एक फर्क़ है इस बार
सपा में जिस तरह का परिवारवाद है उसका क्या होगा? साथ ही इस प्रस्तावित फ़्रंट के अहम नेता लालू प्रसाद यादव भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जेल जा चुके हैं और कई के ख़िलाफ़ इस तरह के मामले चल रहे हैं.
तो क्या ये सब जनता को मान्य होंगे या फिर ये लोग अगर बीजेपी पर आरोप लगते हैं तो उन्हें किस तरह उठा पाएंगे?
समाजवादी विचारधारा के दलों के हालांकि इस बार साथ आने में एक बात भिन्न है.
पहले जब आपातकाल के बाद तैयार हुई थी तो उस समय जनसंघ पार्टी (जो बाद में बीजेपी बनी) इसका हिस्सा थी.
साल 1987 में भी वीपी सिंह के नेतृत्व में बनी सरकार को बीजेपी का समर्थन हासिल था.
तब ये गठबंधन कांग्रेस के ख़िलाफ़ तैयार हुए थे. अब बीजेपी उनकी मुख्य राजनीतिक प्रतिद्वंदी है.

जनता परिवार: इतिहास का मज़ाक़िया दोहराव?

  • 7 नवंबर 2014


सपा प्रमुख के घर जुटे जनता दल परिवार के नेता

लोकसभा चुनाव में भाजपा के हाथों मिली करारी हार के बाद बिखरे हुए जनता दल परिवार के नेता गुरुवार को दिल्ली में मिले.
सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के घर पर हुई बैठक के बाद बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बताया कि जनता परिवार में एकता बनाने का प्रयास शुरू किया गया है. उनका कहना था कि यह प्रयास आगे भी जारी रहेगा.

पत्रकार उर्मिलेश का विश्लेषण

एकता के प्रयास

कभी जनता दल में रहे सभी गुटों की एकता के नाम पर भारत की समकालीन राजनीति में एक बार फिर इतिहास को दोहराने की कोशिश हो रही है. अभी यह कहना कठिन है कि इस बार यह एक और त्रासदी साबित होगी या प्रहसन!
एकता-प्रयास की इस बैठक में गुरुवार को समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल(यू), जनता दल(एस) और इंडियन नेशनल लोकदल के नेता शामिल हुए.


नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव

भविष्य में कुछ और समूहों को भी इसमें शामिल करने की योजना है.
बैठक का एजेंडा पहले के एकता-प्रयासों से इस मायने में अलग था कि इस बार इन दलों के बीच सिर्फ़ एक - गठबंधन या मोर्चे के तहत काम करने तक ही सीमित नहीं रही, निकट भविष्य में सभी गुटों-दलों के विलय से किसी एक नए एकीकृत दल के गठन के प्रस्ताव पर भी व्यापक सहमति बनाई गई.

एकता या विलय

समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव, पूर्व प्रधानमंत्री और जनता दल (एस) नेता एचडी देवगौड़ा और जनता दल (यू) अध्यक्ष शरद यादव व नीतीश कुमार विलय के पक्ष में बताए जा रहे हैं.


मुलायम सिंह यादव और अन्य नेता
ममता बनर्जी ने मुलायम सिंह को सर्वाधिक गैरभरोसेमंद नेता बताया था.

उधर राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद और इनेलो के दुष्यंत चौटाला ने एकता के प्रति अपनी वचनबद्धता तो दोहराई लेकिन ये दोनों नेता विलय के मामले में कुछ और वक़्त चाहते हैं.
शायद दोनों दल विलय के प्रस्ताव को हरी झंडी देने से पहले अपने संगठन के अंदर कुछ और चर्चा कर लेना चाहते हैं.
एकता बनाने के प्रयास में जुटे इन दलों के पास लोकसभा में कुल 15 सदस्य हैं. 2014 के संसदीय चुनाव में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा ने इन सबको उनके अपने-अपने सूबों में बुरी तरह पछाड़ा.


मुलायम सिंह यादव

इसमें कोई दो राय नहीं कि मोदी के राजनीतिक अभ्युदय और केंद्र की भाजपा-नीत सरकार के कामकाज की नई शैली ने पुराने जनता दल के सभी नेताओं को अपने राजनीतिक वजूद और इन दलों के भविष्य पर नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर किया है.
मोदी के राजनीतिक प्रभामंडल का बढ़ता दबाव ही इन दलों की एकता या विलय-पहल के पीछे की मुख्य प्रेरक शक्ति है. इसके अलावा इनके अपने बचे हुए जनाधार का भी दबाव होगा.

घटनाओं से सीख

एकता प्रयास की राजनीति को समझने के लिए लोकसभा चुनाव के बाद के दो महत्वपूर्ण घटनाक्रमों को भी देखा जाना चाहिए. इनका भी इन नेताओं पर असर पड़ा होगा.


मुलायम सिंह यादव और मायावती

पहला घटनाक्रम है, बिहार और यूपी के उपचुनावों में भाजपा के दिग्विजय-रथ का बुरी तरह थम जाना. दूसरा है, महाराष्ट्र और हरियाणा में कांग्रेस को शिकस्त देते हुए भाजपा का विजयी होना. मतलब साफ़ दिखा कि आमने-सामने की लड़ाई में जनता दल परिवार यूपी-बिहार में भाजपा को रोक सकता है.
बिहार के उपचुनावों नीतीश और लालू साथ मिलकर लड़े थे, जबकि लोकसभा चुनाव में वे अलग-अलग थे. यूपी में हुए उपचुनाव में बसपा ने प्रत्याशी नहीं दिए थे.
उपचुनावों के तत्काल बाद लालू ने पटना से बयान जारी किया कि यूपी में भी आगे से मुलायम को मायावती से मिलकर लड़ना चाहिए, जैसा बिहार में हमने किया. पर उस वक़्त मुलायम ने लालू के बयान को ख़ास तवज्जो नहीं दी. मायावती ने भी इसे व्यर्थ बताया.
इस सच को सभी मान चुके हैं कि सिर्फ़ कोई चमत्कार ही यूपी में मुलायम और माया को साथ ला सकता है!

फ़ायदे का गणित



मुलायम सिंह यादव और अन्य नेता

मुलायम को अपने पुराने जनतादल सहयोगियों से मिलकर एकीकृत दल बनाने के फ़ायदे का गणित फ़िलहाल अच्छा लगा. लेकिन राजनीति में अंकों का गणित हमेशा कारगर साबित नहीं होता. एकता के रसायनशास्त्र की भी ज़रूरत होती है. क्या वह मौजूदा एकता-प्रक्रिया में नज़र आ रही है?
अतीत को खंगालें तो जनता दली या दलीय कुनबे के एकता-प्रयासों में मुलायम की 'विश्वसनीयता' सबसे कमज़ोर कड़ी है. सन 2004 के बाद उन्होंने या अन्य राजनीतिक घटकों ने मुद्दा-आधारित गठबंधन या मोर्चे के जितने प्रयास किए, उन्हें ध्वस्त करने का सर्वाधिक श्रेय मुलायम को जाता है.
यूपीए-1 कार्यकाल में सपा, इनेलो, टीडीपी, नेशनल काफ्रेंस, एजीपी आदि ने मिलकर युनाइटेड नेशनल प्रोग्रेसिव एलायंस (यूएनपीए) बनाया. कुछ ही महीने बाद 2008 में मुलायम ने यूपीए और न्यूक्लियर डील के समर्थन के सवाल पर उसे ध्वस्त कर दिया. वह अचानक यूपीए-डील के समर्थन में चले गए.
साल 2012 में राष्ट्रपति चुनाव के दौरान ममता बनर्जी और अन्य विपक्षी नेताओं के साथ उनकी मोर्चेबंदी हुई पर वह भी कुछ घंटे से ज़्यादा नहीं टिकी. ममता ने उन्हें सर्वाधिक ग़ैरभरोसेमंद नेता बताया.

मोर्चे का भविष्य



नरेंद्र मोदी और अमित शाह

ऐसे में सवाल उठना लाज़िमी है, नई मोर्चेबंदी या एकीकृत दल अगर अस्तित्व में आते भी हैं तो उसका नेतृत्व कौन करेगा? अतीत के विघटन-तोड़फोड़ की जनता दल की आदतों से वह कितना बच सकेगा, उसका अपना एजेंडा क्या होगा?
आर्थिक नीति के स्तर पर कांग्रेस, भाजपा, सपा आदि के बीच ज़्यादा फ़र्क़ नहीं रह गए हैं. कमोबेश तीनों दल बड़े कारपोरेट और मध्यवर्ग के हितों पर ख़ास ध्यान देते हैं. ऐसे में क्या नया दल या गठबंधन नरेंद्र मोदी की सरकार और भाजपा की आर्थिक नीति का वैकल्पिक मॉडल सुझाए बग़ैर अपने जनाधार के बीच समर्थन जुटा सकेगा?
उल्लेखनीय है कि इन दलों का बड़ा जनाधार पिछड़े, अल्पसंख्यक और कुछेक दलित समुदायों में है. नेतृत्व और नीतिगत मसलों पर किसी नएपन के बग़ैर काठ की हांडी बार-बार चूल्हे पर कैसे चढ़ेगी?
नई राजनीतिक सोच और भरोसेमंद नेतृत्व के अभाव में इस तरह की जमावड़ेबंदी से सिर्फ़ इतिहास का एक मज़ाक़िया दोहराव होगा. नया करना है तो नई राजनीतिक अंतर्वस्तु भी चाहिए.

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