शुक्रवार, 28 नवंबर 2025

आरएसएस के संविधान विरोध पर गूगल का नज़रिया ! आइये जानते हैं गूगल का जवाब - एच एल दुसाध

आरएसएस के संविधान विरोध पर गूगल का नज़रिया
यह सच है कि 26 नवम्बर, 1949 को संविधान राष्ट्र को सौंपे जाने के दिन से ही आरएसएस इसका विरोधी रहा है। हालांकि तमाम लोगों की भांति मुझे भी मालूम था कि डॉ. आंबेडकर द्वारा तैयार भारतीय संविधान मनुस्मृति पर आधारित न होने के कारण ही संघ इसका विरोधी रहा है, लेकिन यह लेख शुरू करने से पहले यह जानने का कौतूहल हुआ कि गूगल इस पर क्या राय देता है? मैंने गूगल से सवाल किया कि संघ भारतीय संविधान का क्यों विरोधी रहा है, तो जो जवाब मिला, वह वही था जो हम जानते हैं। आइये जानते हैं गूगल का जवाब-

एच एल दुसाध
November 26, 2025 6:38 PM


 
बक़ौल गूगल ’आरएसएस ने 1949 से संविधान का विरोध शुरू किया क्योंकि यह उनके विचार में मनुस्मृति पर आधारित नहीं था और इसे धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक माना गया था, जो उनकी ‘हिंदू राष्ट्र’ की विचारधारा के विपरीत था। इसके अलावा, आरएसएस ने सार्वभौमिक मताधिकार और संविधान के धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी पहलुओं का भी विरोध किया, और कुछ नेताओं ने संविधान को बदलने की मांग भी की थी।’

आरएसएस के विरोध की वजहें बताते हुए गूगल कहता है – ‘आरएसएस की विचारधारा के अनुसार, संविधान को ‘हिंदू राष्ट्र’ के सिद्धांत पर आधारित होना चाहिए, जिसमें हिंदू श्रेष्ठता होगी और अन्य धर्मों के लोग दूसरे दर्जे के नागरिक होंगे; आरएसएस ने 1949 में संविधान का विरोध किया क्योंकि यह मनुस्मृति पर आधारित नहीं था और इसे ‘हिन्दू समाज पर एटम बम’ कहा गया था।
आरएसएस ने सभी नागरिकों के लिए मताधिकार का विरोध किया, जिसमें महिलाओं को भी शामिल किया गया था, क्योंकि उसके विचार में यह एक ‘उधार लिया हुआ’ विचार था। आरएसएस ने संविधान की प्रस्तावना से ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को हटाने की मांग की, जिन्हें वह संविधान के मूल से अलग मानता था। आरएसएस ने 1949 में हिंदू कोड बिल का भी विरोध किया था और इसके खिलाफ प्रदर्शन किया था, जिसमें प्रधानमंत्री नेहरु और डॉ. अंबेडकर के पुतले जलाए गए!’

संविधान संघ की सामाजिक – आर्थिक सोच को नकारता है
संघ द्वारा संविधान विरोध के कारणों को ठीक से समझने के लिए यह बुनियादी सचाई ध्यान में रखना होगा कि दुनिया में जितने भी संगठन वजूद में आए हैं, उनके निर्माण के पीछे एक सामाजिक-आर्थिक  सोच रही  है। यह  सोच ही उसके अनुयायियों को संगठन से जोड़ती  है। संघ के निर्माण के पीछे भी एक सामाजिक-आर्थिक सोच रही, जिसमें शक्ति के समस्त स्रोत – आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक – गगन-स्पर्शी मानवीय मर्यादा हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग(मुख-बाहु- जंघे) से जन्में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के हाथों में सौंपना तथा दलित-बहुजनों को अधिकारविहीन मनुष्य में तब्दील करना  रहा है।
इस सामाजिक-आर्थिक सोच को जमीन पर उतारने के लिए ही संघ को खड़ा करने वाले नायकों ने भारत में हिन्दू राष्ट्र का सपना देखा था और इसका संचालन मनुस्मृति सहित हिन्दू धर्माधारित विधानों से हो, इसकी कामना की थी। अधिकांश विद्वानों के मुताबिक़ हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा, जिसे हिंदुत्व के रूप में भी जाना है, भारत में एक राजनीतिक विचारधारा है जो हिन्दू धर्म-संस्कृति और पहचान पर आधारित एक राष्ट्र राज्य की स्थापना की वकालत करती है।
इसके पीछे की आर्थिक-सामाजिक सोच में स्वदेशी और आत्मनिर्भरता पर जोर, पारम्परिक मूल्यों का संरक्षण और एक मजबूत, एकीकृत हिन्दू समुदाय का निर्माण करना है। कुल मिलाकर हिन्दू राष्ट्र के पीछे संघ की परिकल्पना अपनी   सामाजिक-आर्थिक सोच को जमीन पर उतारने के  लिए हजारों साल पुरानी वर्ण-व्यवस्था को लागू करना रहा है। वर्ण- व्यवस्था के ज़रिये संघ हिन्दू राष्ट्र में अपनी सामाजिक-आर्थिक सोच को जमीन पर उतारना चाहता है। इसका संकेत हिंदुत्व के उत्तोलक सौ साल से अधिक समय से देते रहे हैं।
आज से शताधिक वर्ष पूर्व हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा को परिभाषित करने वाले विनायक दामोदर सावरकर ने इस बात पर जोर दिया था कि राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था पश्चिम से उधार ली गई अवधारणाओं  के बजाय प्राचीन  देसी विचारों पर आधारित होनी चाहिए। जाहिर है उन्होंने वर्ण-व्यवस्था आधारित प्राचीन हिन्दू व्यवस्था द्वारा राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था परिचालित करने का निर्देश दिया था।
हिन्दू राष्ट्र के अग्रणी विचारक प्रो. बिनॉय कुमार सरकार ने 1920 के आसपास अपनी पुस्तक बिल्डिंग ऑफ़ हिन्दू  राष्ट्र  में हिन्दू राज्य की संरचना और हिन्दू राज्य की सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था के लिए जो दिशा-निर्देश प्रस्तुत किया था, वह कौटिल्य, मनु और शुक्र जैसे विचारकों और महाभारत  पर आधारित  था।  जाहिर है सरकार महोदय ने भी मनुवादी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की कामना की थी।
प्राचीन वर्ण-व्यवस्था द्वारा ही भविष्य के भारत की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था चले, इसके प्रबल पैरोकार बंच ऑफ़ थॉट्स  के लेखक और आरएसएस के दूसरे प्रमुख एमएस गोलवलकर भी रहे, जिनकी आर्थिक सोच पर भाजपाइयों के गर्व का अंत नहीं है।
एकात्म मानववाद  के रूप में भारतीय जनसंघ और आज की भाजपा के राजनीतिक दर्शन को सामने लाने वाले उस पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने सामाजिक-आर्थिक मुक्ति के साधन के रूप में साम्यवाद और पूंजीवाद को अस्वीकार करते कहा था कि हिन्दुओं की आर्थिक मुक्ति, भारतीय संस्कृति और मूल्यों पर आधारित एक न्यायसंगत और आत्मनिर्भर आर्थिक प्रणाली के माध्यम से ही संभव हो सकती है। स्पष्ट है कि पंडित उपाध्याय भी वर्ण-व्यवस्थाधारित सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के हिमायती थे। हिंदुत्व के प्रातः स्मरणीय इन मनीषियों की सोच का प्रतिबिम्बन ही संघ के हिन्दू राष्ट्र की सामाजिक-आर्थिक सोच में हुआ है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संविधान के प्रति श्रद्धा जताने में सबको बौना बनाया 
संघ इस बात से वाकिफ रहा कि भारत के संविधान-प्रेमी यह जानते हैं कि वह शुरू से ही संविधान का विरोधी रहा है। उसे इस बात का भी इल्म रहा कि उसके हेडगेवार, गोलवलकर, डीडी उपाध्याय जैसे नायक हिन्दू धर्माधारित जिस सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का सपना देखे थे, वह भारतीय संविधान के विपरीत सोच की रही है, इसलिए संघ से जुड़े लोग संविधान तथा उसके निर्माता डॉ.आंबेडकर के प्रति प्रेम का दिखावा करने में सबसे आगे रहे।
इस मामले में जिसने सबको बौना बनाया, वह हैं संघ प्रशिक्षित प्रधानमंत्री मोदी। मोदी एक ओर संविधान प्रेम का दिखावा करने में सबको बौना बनाते रहे, तो दूसरी ओर शक्ति के समस्त स्रोत सवर्णों के हाथ में देने तथा दलित, आदिवासी, पिछड़ों को गुलामों की स्थिति में पहुँचाने में जुटे रहे। संविधान के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने में सबको पीछे छोड़ने के लिए मोदी ने 2015 के 26 नवम्बर को ‘संविधान  दिवस’ ही घोषित कर दिया।
26 नवम्बर को ‘संविधान दिवस’ घोषित करने के बाद उन्होंने 27 नवम्बर, 2015 को  लोकसभा में राष्ट्र के समक्ष एक मार्मिक अपील करते हुए कहा था –26 नवम्बर इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। इसे उजागर करने के पीछे 26 जनवरी को नीचा दिखाने का प्रयास नहीं है। 26 जनवरी की जो ताकत है, वह 26 नवम्बर में निहित है, यह उजागर करने की आवश्यकता है। भारत जैसा देश जो विविधताओं से भरा हुआ देश है, हम सबको बांधने की ताकत संविधान में है, हम सबको बढाने की ताकत संविधान में है और इसलिए समय की मांग है कि हम संविधान की सैंक्टिटी,संविधान की शक्ति और संविधान में निहित बातों से जन-जन को परिचित कराने का एक निरंतर प्रयास करें। हमें इस प्रक्रिया को एक पूरे रिलीजियस भाव से, एक पूरे समर्पित भाव से करना चाहिये। बाबा साहेब आंबेडकर की 125वीं जयंती जब देश मना रहा है तो उसके कारण संसद के साथ जोड़कर इस कार्यक्रम (संविधान दिवस ) की रचना हुई। लेकिन भविष्य में इसको लोकसभा तक सीमित नहीं रखना है। इसको जन-सभा तक ले जाना है। इस पर व्यापक रूप से सेमिनार हो, डिबेट हो, कम्पटीशन हो, हर पीढ़ी के लोग संविधान के संबंध में सोचें, समझें और चर्चा करें। इस संबंध में एक निरंतर मंथन चलते रहना चाहिए और इसलिए एक छोटे से प्रयास का आरंभ हो रहा है। 
पूरा हो गया है संघ का सपना
इतना ही नहीं, उस अवसर पर संविधान निर्माण में डॉ.आंबेडकर की भूमिका की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उन्होंने यहां तक कह डाला था – अगर बाबा साहब आंबेडकर ने इस आरक्षण की व्यवस्था को बल नहीं दिया होता, तो कोई बताये कि मेरे दलित, पीड़ित, शोषित समाज की हालत क्या होती? परमात्मा ने उसे वह सब दिया है, जो मुझे और आपको दिया है, लेकिन उसे अवसर नहीं मिला और उसके कारण उसकी दुर्दशा है। उन्हें अवसर देना हमारा दायित्व बनता है।
उनके उस भावुक आह्वान को देखते हुए ढेरों लोग उम्मीद कर रहे थे कि वे आने वाले वर्षों में कुछ ऐसे ठोस विधाई एजेंडे पेश करेंगे जिनसे संविधान के उद्देश्यिका की अबतक हुई उपेक्षा की भरपाई होगी। समता तथा सामाजिक न्याय के डॉ.आंबेडकर की संकल्पना को आगे बढाने में मदद मिलेगी। किन्तु, जिस तरह सत्ता में आने के पहले प्रत्येक व्यक्ति के खाते में 15 लाख रुपये जमा कराने तथा हर वर्ष युवाओं को दो करोड़ रोजगार देने का उनका वादा जुमला साबित हुआ, उसी तरह उनका डॉ.आंबेडकर और संविधान के प्रति प्रतिबद्धता दिखाना भी जुमला साबित हुआ।
पिछले 11 सालों में मोदी की हिन्दुत्ववादी सरकार ने जो नीतियाँ बनाई, उनसे बड़ी तेजी से शक्ति के समस्त स्रोतों पर  ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों का एकाधिकार हुआ, जिसका साक्ष्य देती है मई, 2024 में आई वर्ल्ड इनइक्वालिटी लैब- 2024  की रिपोर्ट। उस रिपोर्ट में यह तथ्य उभर कर सामने आया था कि देश की संपत्ति में 89% हिस्सेदारी सामान्य वर्ग अर्थात अपर कास्ट की है, जबकि दलित समुदाय की हिस्सेदारी मात्र 2.8 %। वहीं भारत के विशालतम समुदाय ओबीसी की देश की धन-संपदा में महज 9% की हिस्सेदारी है।
यही नहीं मोदी- राज में 2021 में आई  ग्लोबल जेंडर गैप की रिपोर्ट ने बता दिया कि भारत महिला सशक्तिकरण के मामले में बेहद पिछड़े अपने प्रतिवेशी मुल्कों से भी ज्यादा पिछड़ा है। भारत की आधी आबादी को अपने देश के पुरुषों की बराबरी में आने में 257 साल लगेंगे। निश्चय ही यह संघ की नीतियों का परिणाम है, जो महिला अधिकारों का विरोधी है। यही नहीं, आज यदि कोई गौर से देखे तो पता चलेगा कि पूरे देश में जो असंख्य गगनचुम्बी भवन खड़े हैं, उनमें 80-90 प्रतिशत फ्लैट्स सामान्य वर्गों के हैं।
मेट्रोपोलिटन शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक में छोटी-छोटी दुकानों से लेकर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉलों में 80-90 प्रतिशत दूकानें भी इन्हीं की हैं। चार से आठ-आठ लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है, उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादा गाड़ियां इन्हीं की होती हैं। देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे-बड़े अख़बारों से लेकर तमाम चैनल प्राय इन्हीं के हैं। फिल्म और मनोरंजन तथा ज्ञान-उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा इन्ही का है। संसद, विधानसभाओं में वंचित वर्गों के जनप्रतिनिधियों की संख्या भले ही ठीक-ठाक हो, किन्तु मंत्रिमंडलों में दबदबा इन्हीं का है।
मंत्रिमंडलों में लिए गए फैसलों को अमलीजामा पहनाने वाले 80-90 प्रतिशत अधिकारी इन्हीं वर्गों से हैं। आज की तारीख में न्यायिक सेवा, शासन-प्रशासन, उद्योग-व्यापार, फिल्म-मीडिया, धर्म और ज्ञान क्षेत्र में भारत के अपर कास्ट जैसा दबदबा दुनिया में कहीं नहीं है। यही तो संघ को आगे बढ़ाने वाले हेडगेवार, गोलवलकर, डी डी उपाध्याय इत्यादि का सपना था। इस स्थिति ने संविधान की उद्देश्यिका में उल्लिखित तीन न्याय : सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक को सपना बनाकर संविधान को प्रभावहीन बना दिया है।
तैयार हो गया है संघ के सपनों का संविधान
बहरहाल आज संघ 80 से 90% शक्ति के समस्त स्रोत सवर्णों का वर्चस्व स्थापित करने के साथ ही वह मनुस्मृति आधारित हिन्दू राष्ट्र का संविधान का प्रारूप पेश करने की स्थिति में आ गया है। संघ अपने राजनीतिक संगठन भाजपा के जरिये जिस हिन्दू राष्ट्र के सामाजिक-आर्थिक विचार को जमीन पर उतारना चाहता है, उसके संविधान का प्रारूप 2025 के महाकुम्भ में सामने आ चुका है। इसे 12 महीने 12 दिन में 25 विद्वानों ने मिलकर तैयार किया है, जिसके पीछे चारों पीठों के शंकराचचार्यों की सहमति है।
कुल 501 पन्नों के इस संविधान की निर्माण समिति में उत्तर भारत के 14 और दक्षिण भारत के 11 विद्वान शामिल किए गए हैं। संविधान निर्माण समिति ने धर्मशास्त्रों के साथ ही रामराज्य, श्रीकृष्ण के राज्य, मनुस्मृति और चाणक्य के अर्थशास्त्र का अध्ययन करने के बाद हिंदू राष्ट्र के संविधान को तैयार किया है। संविधान निर्माण समिति में काशी हिंदू विश्वविद्यालय, संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के विद्वान भी शामिल रहे। इसके संरक्षक शांभवी पीठाधीश्वर के अनुसार 2035 तक हिंदू राष्ट्र की घोषणा का लक्ष्य रखा गया है।
हिंदू राष्ट्र के पहले संविधान के आधार पर देश गणराज्य होगा। चुनाव के आधार पर ही राष्ट्र के प्रमुख का चयन किया जाएगा। संविधान में यहां पर सभी को रहने का अधिकार रहेगा, लेकिन राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के खिलाफ कार्य करने वालों को सख्त दंड का विधान भी बनाया गया है। संविधान निर्माण समिति के अध्यक्ष डॉ. कामेश्वर उपाध्याय के अनुसार हिंदू राष्ट्र में हर नागरिक के लिए सैनिक शिक्षा अनिवार्य होगी। हिंदू राष्ट्र में वर्तमान कर प्रणाली नहीं रहेगी और कृषि को पूर्णत: कर मुक्त कर दिया जाएगा। कर चोरी पर कठोर दंड का विधान होगा। संविधान के अनुसार एक सदनात्मक व्यवस्थापिका होगी और सदन का नाम संसद नहीं हिंदू धर्म संसद होगा। हर संसदीय क्षेत्र में एक धर्म सांसद निर्वाचित होगा। पूरे देश में 543 धर्म सांसद निर्वाचित होंगे।
धर्मसांसद के लिए न्यूनतम आयु सीमा 25 और मतदान करने के लिए न्यूनतम आयु सीमा 16 वर्ष होगी। चुनाव लड़ने और लड़ाने का अधिकार केवल सनातन धर्म के अनुयायियों, भारतीय उप महाद्वीप के पंथ जैन, बौद्ध व सिख मत के अनुयायियों को होगा। विधर्मियों को मताधिकार से वंचित किया जायेगा। धर्मसांसद बनने के लिए उम्मीदवार को वैदिक गुरुकुल का छात्र होना अनिवार्य होगा। अध्यक्ष का चयन गुरुकुलों से होगा। धर्मशास्त्र और राजशास्त्र में पारंगत व्यक्ति जिसने राज्य संचालन का पांच वर्ष का व्यवहारिक अनुभव लिया हो वहीं राष्ट्रध्यक्ष पद के योग्य होगा।
हिंदू राष्ट्र संविधान के अनुसार युद्ध के समय राजा को अपनी सेना का नेतृत्व करना होगा। राष्ट्राध्यक्ष विषय विशेषज्ञ, शास्त्र ज्ञाता, शूरवीर, शस्त्र चलाने में निपुण और प्रशिक्षित व्यक्तियों को ही मंत्री पद पर नियुक्त करना होगा। हिंदू राष्ट्र में हिंदू न्याय व्यवस्था लागू की जाएगी। यह संसार की सबसे प्राचीन न्याय व्यवस्था है। राष्ट्राध्यक्ष के नियंत्रण में मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीश होंगे। कोलेजियम जैसी कोई व्यवस्था नहीं रहेगी। भारतीय गुरुकुलों से निकलने वाले सर्वोच्च विधिवेत्ता ही न्यायाधीश के पद को सुशोभित करेंगे। सभी को त्वरित न्याय सुनिश्चित किया जाएगा।
झूठे आरोप लगाने वालों पर भी दंड का विधान होगा। दंड सुधारात्मक होंगे। हिंदू राष्ट्र में प्राचीन वैदिक गुरुकुल प्रणाली को लागू किया जाएगा। अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों को गुरुकुलों में परिवर्तित किया जाएगा और शासकीय धन से संचालित सभी मदरसे बंद किए जाएंगे। मनु और याज्ञवल्क्य की स्मृतियों का व्यावहारिक उपयोग किया जाएगा। पिता की मृत्यु के उपरांत श्राद्ध करने वाला उत्तराधिकारी होगा।
एक पति, एक पत्नी प्रथा चलेगी। हिंदू विधि का अंतिम व सर्वोच्च उद्देश्य वर्णाश्रम व्यवस्था की पुन: स्थापना है। कर्म आधारित वर्ण-व्यवस्था को विधिक रूप दिया जाएगा। वैसे तो हिन्दू राष्ट्र का संविधान लागू किये बिना संघ अपना लक्ष्य प्राप्त कर चुका है। पर, चूँकि खुलकर भारतीय संविधान की जगह हिन्दू धर्माधारित विधान लागू करने के लिए हिन्दू राष्ट्र की घोषणा जरूरी है, इसलिए वह इस दिशा में आगे बढ़ रहा है, किन्तु राहुल गांधी उसकी राह में अवरोध बनकर खड़े हो गए हैं।
हिन्दू राष्ट्र की राह में एवरेस्ट बनकर सामने आए राहुल गांधी
भारत जोड़ो यात्रा के बाद जब राहुल गांधी फरवरी 2023 में रायपुर में आयोजित कांग्रेस के 85 वें अधिवेशन से  सामाजिक न्याय का दामन थामे, उससे हिन्दू राष्ट्र की राह में एक बड़ा अवरोध खड़ा हो जायेगा, इसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। चूंकि चुनाव को ठीक से सामाजिक न्याय पर केन्द्रित करने पर भाजपा हमेशा हार वरण करने के लिए अभिशप्त रहती है, इसलिए राहुल गांधी ने रायपुर से शुरू किये गए सामाजिक न्याय के मिशन को जब 5 अप्रैल, 2024 को 5 न्याय, 25 गारंटियों और 300 वादों से युक्त कांग्रेस के घोषणापत्र के जरिये सामाजिक न्याय को शिखर पर पहुंचाया। मोदी के 400 पर के मंसूबों पर पानी तो फिरा ही, वह स्वयं हारते-हारते भी बचे, जिसमें उनके तारणहार बने थे चुनाव आयुक्त राजीव कुमार।
लोकसभा चुनाव बाद वित्तमंत्री सीतारमण के पति परकला प्रभारक सहित कई लोगों ने कहा कि केचुआ द्वारा 79 सीटों पर हेराफेरी नहीं की गई होती तो  इंडिया ब्लाक सत्ता में होता और राहुल गांधी पीएम होते। राहुल गांधी ने सामाजिक न्याय के एजेंडे के जोर से हिन्दू राष्ट्र के सपने को जमींदोज कर दिया है, इस बात को ध्यान में रखते हुए ही मोदी ने चुनाव आयोग के सहारे हारी हुई बाजी पलटने का योजना बनायाऔर हरियाणा तथा महाराष्ट्र में चमत्कार घटित करने में सफल हो पाए।
हिन्दू राष्ट्र की राह में राहुल गांधी के अवरोध को ध्यान में रखते हुए ही मोदी ने मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार को आगे करके देश के राजनीति की दिशा तय करने वाले बिहार से विशेष गहन संशोधन (एसआईआर ) की प्रक्रिया शुरू की।  बिहार में एसआईआर शुरू होने से पहले राज्य में 7.89 करोड़ मतदाता थे। प्रक्रिया के बाद , अगस्त ,2025 में  प्रकशित मसौदा सूची में 7.42 करोड़ मतदाता ही रह गए। यानी लगभग 65 लाख नाम हटा दिए गए, जिनमें 22 लाख मृत व्यक्ति थे।  यहाँ ध्यान रहे कि हिन्दू धर्म के प्राणाधार वर्ण व्यवस्था में दलित, आदिवासी, पिछड़ों एवं महिलाओं का आर्थिक, शैक्षिक, धार्मिक की भांति ही शक्ति के एक और प्रमुख स्रोत राजनीति का भोग अधर्म रहा,किन्तु उन्हें आंबेडकर के संविधान के जरिये राजनीतिक शक्ति के भोग का भी अवसर मिला।
ऐसे में जब हिन्दुत्ववादी  मोदी के संगी ज्ञानेश को एसआईआर के जरिये मतदाताओं की सफाई का अवसर मिला, तो निश्चय ही उनके निशाने पर शुद्रातिशूद्र आए होंगे। बहरहाल जब बिहार में  एसआईआर के जरिये लाखों बहुजन मतदाताओं की सफाई का अवसर मिला, तब ज्ञानेश कुमार ने अक्तूबर के पहले सप्ताह में दर्जन भर राज्यों में एसआईआर की प्रक्रिया शुरू करने का निर्णय लिया, जिसकी विपक्ष की ओर से जोरदार खिलाफत की गई। कई राज्यों के मुख्य मंत्रियों ने अपने राज्य में इसकी प्रक्रिया का बायकाट कर दिया। लेकिन विपक्ष के तमाम विरोध के बावजूद 12 राज्यों में एसआईआर की प्रक्रिया जारी है।
एसआईआर के जरिये ही पूरा हो सकता है हिन्दू राष्ट्र का ख्वाब
एसआईआर के जरिये होने वाली क्षति की जो आशंका विपक्ष ने की थी, बिहार में उसका भयावह परिणाम 14 नवम्बर को सामने आ गया, जब एनडीए की अविश्वसनीय जीत के जरिये स्वाधीन भारत के चुनावी इतिहास में सबसे बड़ा उलट-फेर हुआ। बिहार चुनाव के बाद विपक्ष ने विरोध का नया इतिहास रचा। इसी क्रम में आगे चलकर कांग्रेस ने दिसंबर के पहले सप्ताह में रैली करने की घोषणा के जरिये एसआईआर के खिलाफ आरपार की लड़ाई का एलान कर दिया, जिसके बाद 272 का समूह सक्रिय हुआ।
वह इसलिए कि राहुल गांधी ने जाति जनगणना के बाद शक्ति के स्रोतों में जितनी आबादी-उतना हक़ लागू करने के जरिये सामाजिक न्याय की राजनीति को जो बड़ी उंचाई दे दी है, उससे मोदी अब आगे चुनाव ही नहीं जीत पाएंगे। चुनाव जीत पाएंगे तभी जब एसआईआर की प्रक्रिया शुरू होगी। ऐसे में कहा जा सकता है कि राहुल गांधी द्वारा सामाजिक न्याय की राजनीति को शिखर प्रदान करने के बाद हिन्दू राष्ट्र का सपना खटाई  में पड़  गया है। अब सिर्फ एसआईआर के जरिये ही हिन्दू राष्ट्र का ख्वाब पूरा हो सकता है, इसलिए जिस केचुआ के द्वारा एसआईआर की प्रक्रिया शुरू हो सकती है, उसके बचाव में ही सवर्ण समाजों के विशिष्ट जन खुला पत्र के जरिये मैदान में कूद पड़े हैं। वहीं मोदी सरकार ने एसआईआर की प्रक्रिया जोर-शोर से शुरू कर  दी है, जिसके खिलाफ राहुल गांधी आर-पार की लड़ाई  के लिए कमर कस चुके हैं।
काबिले गौर है कि केचुआ के सहयोग से मोदी सरकार ने लोकतंत्र को अपहृत कर देश को चुनावी निरंकुशता वाले देशों की श्रेणी में पहुंचा दिया गया है। विश्व के विभिन्न संस्थान, जो दुनिया के लोकतान्त्रिक मूल्यों का अध्ययन करते हैं, ने निष्कर्ष दिया है कि भारत चुनावी निरंकुशता वाले देशों की श्रेणी में आ गया है और ‘बंद लोकतंत्र’ की ओर अग्रसर है।  चुनावी निरंकुशता एक ऐसी संकर व्यवस्था है, जिसमें नियमित चुनाव होते हैं, लेकिन ये चुनाव लोकतान्त्रिक स्वतंत्रता और निष्पक्षता के मानको को पूरा नहीं कर पाते।
इस व्यवस्था में लोकतंत्र का दिखावा होता है, लेकिन सत्तावादी तरीके अपनाए जाते हैं, जैसे कि राजनीतिक दमन और अनुचित चुनाव। जिस बंद लोकतंत्र की ओर भारत अग्रसर है, उसका मतलब होता है एक ऐसा लोकतंत्र जिसमे चुनाव तो होते हैं, लेकिन सत्ता,संसाधन और निर्णय कुछ ही लोगों के नियंत्रण में रहते हैं। यह वास्तविक लोकतंत्र नहीं माना जाता, बल्कि एक तरह का आंशिक या नियंत्रित लोकतंत्र होता है।
लोकतान्त्रिक मूल्यों का अध्ययन वाले अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों  के मुताबिक ‘चुनावी लोकतंत्र’ के रूप में मशहूर भारत की स्थिति अब उतनी ही निरंकुश देश की हो चली है, जितनी कि  उसके पड़ोसी देश पकिस्तान की है। भारत में निरंकुशता की स्थिति बांग्लादेश और नेपाल से भी ख़राब है। प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी नीतियों से शक्ति के स्रोतों पर सवर्ण हिन्दुओं का 80 से 90% कब्ज़ा जमवा कर संविधान को काफी हद व्यर्थ कर ही दिया है, अब केचुआ के सहयोग से देश में चुनावी निरंकुशता को बढ़ावा देकर को संविधान को पूरी तरह प्रभावहीन करने की दिशा में कदम बढ़ा दिया है।
ऐसे में संविधान का भविष्य अब एसआईआर पर निर्भर करता है। यदि विपक्ष एसआईआर के दुष्प्रभाव से भारतीय लोकतंत्र को बचा पाता है तब तो संविधान प्रभावी रह पायेगा, नहीं तो संघ 2035 तक हिन्दू राष्ट्र का संविधान देश पर थोपने में अवश्य कामयाब हो जायेगा!
-एच एल दुसाध
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.
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बुधवार, 12 नवंबर 2025

चले जाओ यहां से। तुमने ही मेरे बेटे को मारा है।

 नीच और तड़ीपार है तो मुमकिन है 


नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी ऐसे ही छोड़ देगा? मौत का सौदागर है खून की नदियां बह जाएगी और कुर्सी नहीं छोड़ेगा।

एक थे हरेन पंड्या, अस्ट्रॉनॉट सुनीता विलियम्स के कजिन भाई और 25 साल पहले गुजरात भाजपा के कद्दावर नेता। तब गुजरात के नए-नवेले मुख्यमंत्री बने एक नेता को यह भरोसा नहीं था कि वे अपनी लोकप्रियता के दम पर एक चुनाव जीत सकते हैं। इसलिए वे नेता गुजरात की सबसे सेफ सीट, अर्थात अहमदाबाद की एलिस ब्रिज सीट से चुनाव लड़ना चाहते थे, जो कि हरेन पंड्या की सीट थी। पंड्या को उस व्यक्ति के तौर-तरीके पसंद नहीं थे, तो सीट देने से मना कर दिया। अदावत की खाई गहरी हो गयी। 

तत्पश्चात गुजरात में भीषण दंगे हुए। आग लगाई किसी अन्य से, तपिश से झुलसे अन्य बेगुनाह लोग। हजारों की संख्या में लोग मरे, जिसमें मुख्य तादात मुस्लिमों की थी। क्रिया की प्रतिक्रिया के सिद्धान्त पर हजारों मासूमों की हत्या हरेन पंड्या के उसूलों में शामिल नहीं थी। कहते हैं कि दंगों की जांच कमेटी को पंड्या ने दंगों वाली रात से पहले मुख्यमंत्री आवास में हुई एक "गुप्त बैठक" के बारे में बता दिया था, जिसमें गुजरात के एक शीर्ष नेता ने पुलिस को निर्देश दिए थे कि हिंदुओं को अपनी भड़ास निकालने का पूरा मौका दिया जाए। कोई कार्यवाही नहीं करनी है। 
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कुछ समय बाद 26 मार्च, 2003 की सुबह लॉ गार्डन एरिया में हरेन पंड्या की गोलियों से भूनी हुई लाश उनकी कार में बरामद हुई। पंड्या के हत्यारे उनसे इस कदर घृणा करते थे कि हरेन को गुप्तांगों तक में गोली मारी गयी थी, अलबत्ता गाड़ी में खून का धब्बा तक न था। अनुमान है कि उन्हें अपहृत करने के बाद हत्या की गई और लाश गाड़ी में डंप कर दी गयी। 
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शुरुआती जांच के बाद असगर अली नामक एक शख्स को पंड्या की हत्या के इल्जाम में कुछ अन्य लोगों के साथ गिरफ्तार किया गया और सजा भी हुई। थ्योरी बनाई गई कि - मुस्लिमों ने गोधरा का बदला लेने के लिए पंड्या की हत्या कर दी। इस तरह पंड्या की चिता पर राजनीतिक लाभ की रोटियां सेकी गईं। 
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2011 में गुजरात हाईकोर्ट ने असगर अली तथा अन्य आरोपियों को बरी करते हुए पुलिस और सीबीआई को फटकार लगाते हुए केस को गुमराह करने का आरोप लगाया और कहा कि असगर अली के बहाने "असली आरोपी" को बचाने की साजिश की जा रही है। 
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गौरतलब है कि हाईकोर्ट के जजमेंट से सिर्फ 3-4 महीने पहले गुजरात के आईएएस अधिकारी संजीव भट्ट ने सुप्रीम कोर्ट ने एक हलफनामा देकर गुजरात दंगों के कुछ राज तो खोले ही थे, साथ में यह भी खुलासा किया था कि साबरमती जेल के इंचार्ज रहने के दौरान हरेन पंड्या के कत्ल की सजा काट रहे असगर अली ने उन्हें बताया था कि हरेन पंड्या की हत्या उसने नहीं की थी, उसे तो पीट-पीट कर इल्जाम कबूलने पर मजबूर किया गया था।
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बकौल असगर - वास्तव में उसे ये सुपारी मिली तो थी पर उसने इस काम को मना कर दिया था, जिस कारण बाद में तुलसीराम प्रजापति नामक व्यक्ति ने यह हत्या की थी, हत्या का आदेश सोहराबुद्दीन नामक एक गैंगस्टर ने दिया था और सोहराबुद्दीन को पंड्या की सुपारी देने वाला शख्स कोई और नहीं, बल्कि गुजरात के एक बड़े पुलिस अधिकारी "डीजी बंजारा" थे, जो गुजरात के दो शीर्ष नेताओं के सबसे खासमखास पुलिस अधिकारी थे। सोहराबुद्दीन के एक अन्य सहयोगी ने भी बाद में यह गवाही दी थी कि पंड्या की हत्या सोहराबुद्दीन ने डीजी बंजारा के कहने पर करवाई थी।
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काफी लोग जानते हैं कि सोहराबुद्दीन किन नेताओं के लिए वसूली रैकेट चलाता था और पॉलिटिकल मर्डर करता था। 2004 में जब केंद्र में सरकार बदली तो सोहराबुद्दीन के आकाओं को उससे खतरा प्रतीत होने लगा और उसे तथा उसके गुर्गे तुलसीराम को 2005 में ही इन्ही डीजी बंजारा के हाथों लश्कर का आतंकी बता कर एक एनकाउंटर में पहले ही निपटा दिया गया था। बची उसकी बीवी कौसर, जो कि गर्भवती थी, बलात्कार करने के बाद उसकी भी हत्या कर दी गयी। 
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इसी सोहराबुद्दीन के एनकाउंटर की जांच कर रहे थे जज लोया, जिन पर मैंने पहले ही दो पोस्टें की हैं। लोया की भी रहस्यमयी परिस्थितियों में केस का फैसला देने से पहले ही मौत हो गयी। लोया के दो राजदार दोस्त भी थे - खंडेलकर और थाम्ब्रे, जिसमें पहला एक बिल्डिंग से कूद कर मर गया और दूसरा चलती ट्रेन की ऊपरी बर्थ से गिर कर। बाकी बचे संजीव भट्ट, जिनके जैसा ईमानदार और कर्मठ अफसर भारत में होना मुश्किल है। जिस दिन उन्होंने कोर्ट में हलफनामा दिया, उसी शाम उन पर 30 साल पुराने फर्जी मामले को खोलकर सस्पेंड कर दिया गया, आज जेल में उम्रकैद की सजा काट रहे हैं। (संजीव जी पर विस्तृत चर्चा जल्द)
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2019 में सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट का फैसला रद्द कर के पूर्व में दोषी रहे लोगों की सजा बहाल करते हुए हरेन पंड्या के कत्ल का मामला हमेशा के लिए बंद कर दिया। साथ में यह भी बता दिया कि इस मामले में न्याय की बात करने वालों पर अब जुर्माना ठोका जाएगा। 
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बहरहाल, इस केस से जुड़ी हर जुबान तो खामोश हो गयी पर उस बाप की आवाज पर कौन रोक लगा सकता है, जिस पिता ने अपने बेटे हरेन की चिता पर हाजिरी लगाने आये लोगों में सिर्फ एक नेता को सार्वजनिक रूप से फटकार लगाई थी और कहा था कि...
चले जाओ यहां से। तुमने ही मेरे बेटे को मारा है।

Mr Hemraj Singh
साभार : एस के अहीर की पोस्ट (फेसबुक)


बुधवार, 6 अगस्त 2025

देशभक्ति का प्रमाणपत्र


यहाँ पर मनोज कुमार झा द्वारा लिखे गए The Indian Express के 6 अगस्त, 2025 के लेख “A Certificate of Patriotism” का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है:


देशभक्ति का प्रमाणपत्र

सुप्रीम कोर्ट की ‘सच्चे भारतीय’ पर टिप्पणी संस्थागत सीमाओं के उल्लंघन और संकीर्ण राष्ट्रवाद की वैधता की ओर इशारा करती है।

✍🏼 मनोज कुमार झा

यह अत्यंत चिंता की बात है जब देश की सर्वोच्च संवैधानिक संस्था यह बताने लगे कि एक ‘सच्चे भारतीय’ को कैसा होना चाहिए, क्या बोलना चाहिए, क्या महसूस करना चाहिए और कैसा व्यवहार करना चाहिए। जब यह परिभाषा किसी न्यायाधीश द्वारा दी जाती है, तो यह प्रश्न उठता है कि क्या यह नेता या किसी राजनीतिक विचारधारा के समर्थक का काम है या एक न्यायपालिका के सदस्य का?

‘सच्चे भारतीय’ की इस अवधारणा को जब न्यायिक निर्णयों में स्थान मिलने लगे, तो यह लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरे की घंटी है। यह अवधारणा एक विशिष्ट प्रकार की पहचान को वैधता देती है और दूसरों को संदिग्ध बनाती है, चाहे वे कितने भी ईमानदार और देशभक्त क्यों न हों।

यह विचारधारा केवल एक तरह की देशभक्ति को स्वीकृति देती है, जो अधिकतर वर्दी, झंडा और युद्ध के प्रतीकों तक सीमित होती है। ऐसे में जो लोग संविधान की आलोचना करते हैं, वे ‘देशद्रोही’ माने जाते हैं और जो चुपचाप स्वीकृति देते हैं, वे ‘सच्चे देशभक्त’।

मैंने पहले भी (इंडियन एक्सप्रेस में 29 सितंबर 2024 को) लिखा था कि “सरकारों की प्राथमिक जिम्मेदारी नागरिकों की गरिमा सुनिश्चित करना है, न कि ‘सच्चे भारतीयों’ की परिभाषा तय करना।”

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ‘सच्चे भारतीय’ की इस परिभाषा को लागू करने में विविधता, असहमति और बहुलता को स्थान नहीं मिलता। लोकतंत्र की आत्मा समानता नहीं, बल्कि विविधता है। और जब यह विविधता एक निश्चित सोच के खिलाफ हो जाती है, तो उसे दबाया जाने लगता है – आलोचना को देशद्रोह बना दिया जाता है।

न्यायपालिका से यह अपेक्षा होती है कि वह सत्ता के अन्य अंगों पर निगरानी रखे – जैसे संसद, कार्यपालिका – और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करे। लेकिन जब न्यायिक टिप्पणियाँ स्वयं इन सीमाओं को पार करने लगें, तो खतरा और बढ़ जाता है।

हम यह कैसे तय करेंगे कि कौन ‘सच्चा भारतीय’ है? क्या यह बोलने की शैली से तय होगा, या किसी विशेष पार्टी से निकटता से? क्या यह आलोचना को चुप कराने का तरीका बन जाएगा?

लोकतंत्र में नागरिकों को यह अधिकार है कि वे सरकार की आलोचना करें, भले ही वह आलोचना तीखी क्यों न हो। यदि नागरिकों के ऐसे अधिकारों को दबाया जाएगा, तो वह ‘सच्चे भारतीय’ की वैधानिकता का प्रश्न नहीं, बल्कि लोकतंत्र के मूल ढांचे का प्रश्न होगा।

हमारे समय की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि आलोचना और असहमति को देशद्रोह या राष्ट्रविरोधी घोषित करने का चलन बढ़ता जा रहा है। यह खतरनाक प्रवृत्ति न केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को खत्म करती है, बल्कि हमारे संविधान की आत्मा को भी आहत करती है।

सुप्रीम कोर्ट और अन्य संवैधानिक संस्थाओं का यह दायित्व है कि वे इस प्रवृत्ति के खिलाफ खड़े हों। देशभक्ति की कोई एकल परिभाषा नहीं हो सकती। उसे न्यायपालिका की शक्ति का औजार नहीं बनाया जा सकता।

जब भी राजनीतिक भाषणों में न्यायपालिका को हथियार बनाया जाने लगे, तो यह लोकतंत्र के लिए चेतावनी होती है। न्यायपालिका को जनता का अंतिम आश्रय स्थल माना गया है – यह एक ऐसा संस्थान होना चाहिए जो मतभेद, असहमति और आलोचना को स्थान देता हो।

⸻लेखक राज्यसभा सांसद हैं, राष्ट्रीय जनता दल से।

शनिवार, 12 अप्रैल 2025

चाल चेहरा और चरित्र!

 चाल चेहरा और चरित्र! 

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इसी में सब कुछ अंतर्निहित है, यह उक्त स्लोगन से साफ-साफ नजर आता है और ऐसे में जिसको बलि का बकरा बनाया जाता है यदि वह यह कहे की हर बहस बेमानी है , जब उसकी नियुक्ति ही बेइमानी  से हुई हो।

सर्वोच्च न्यायालय अपने ही आदेश को कैसे बदल दिए जाने पर चुप हो जाता है यह बहुत जटिल सवाल है "न्याय" की बात जब आती है तो न्याय दिखना भी चाहिए आम आदमी को उसमें विश्वास भी होना चाहिए क्या यह किसी को भी भरोसेमंद लगता है कि एक पार्टी के दो लोग तीन सदस्य समिति में जिस पर कोई और निगरानी ना हो सके द्वारा लिए गए फैसले कैसे उचित हो सकते हैं।

यही से शुरू होता है चुनाव आयोग के हर कदम का हिसाब किताब । देश के सर्वोच्च पद पर बैठा हुआ व्यक्ति अब तक के सारे नेताओं को नाकारा और बेईमान बताता हो यह बात सुनने में कितनी अच्छी लगती है लेकिन जब उसे पर बहस होती है तो यह सब बकवास की श्रेणी में डाल दिया जाता है और जुमला कहकर के टाल दिया जाता है।

वर्तमान व्यवस्था द्वारा हर तरह से नियंत्रित किया गया है लिखने पर, बनाने पर, बोलने पर, किसी तरह के भी बयान पर अदृश्य पाबंदी कम कर रही है और अगर कोई पाबंदी नहीं है तो लोग डरे क्यों हैं क्यों सड़कों पर नहीं उतर रहे हैं बड़ी-बड़ी पार्टियों के लोग चुपचाप चुनाव हार जाते हैं, जनता इनके खिलाफ है फिर भी यह चुनाव जीत जाते हैं विपक्ष इस पर आवाज नहीं उठाता। यह सब कितना आश्चर्यजनक लग रहा है क्योंकि हम उस जमाने के हैं जब किसी भी लेवल पर बेईमानी होती थी तो तूफान खड़ा हो जाता था। कितना भी शक्तिशाली नेता हो इसका विरोध होता था और बुरी तरह से विरोध होता था।

चुनाव आयोग को यदि लें तो इसपर अमेरिका के तीन अलग अलग लोगों ने कहा की EVM सुरक्षित नहीं है उसके साथ छेड़छाड़ की जा सकत है डोनाल्ड ट्रम्प ,एलेन मॉस्क , तुलसी गबार्ड। लेकिन हमारा चुनाव आयोग इसको मानने को तैयार नहीं है ? क्यों ?

इसमें मेरा क्या दोष है जब मेरी नियुक्ति ही
बेईमानी के लिए की गयी है ?

क्या यह आपको दिख नहीं रहा है 

आम आदमी की सोच को बदलने का जितना प्रयोग इस समय हुआ है जो इससे पहले संभवत: कभी नहीं हुआ । संविधान और लोकतंत्र जो अधिकार देता है उसका अनुपालन न्यायालय और ब्यूरोक्रेसी द्वारा किया जाता है क्या आज इस पर किसी को भरोसा रह गया है और भरोसा ना रहने का कारण क्या है क्या इन संस्थानों में बैठे हुए लोग विदेश से ले गए हैं या उन्हें गुलाम बना लिया गया है उन्होंने जो शपथ ली है क्या उसके प्रति ईमानदार हैं या उन्हें अलग से शपथ दिलाई गई है कि वह वर्तमान सत्ता के हर गलत सही फैसले के साथ खड़े रहेंगे। 

लगभग हर सवाल का जवाब यही आता है कि जो भी संस्थाएं हैं वह अपने में ईमानदार नहीं है, इस सबके लिए  हमें धन्यवाद करना चाहिए उन पत्रकारों, उन अभिनयकर्ताओं और नेताओं का जो निरंतर लड़ रहे हैं। 

इसी के साथ हमें यह भी विचार करना होगा कि पूरी दुनिया में हमारे देश की जो छवि बन रही है वह कितनी कमजोर और कितनी बदनामी वाली हो रही है क्योंकि यहां पर संविधान का लोकतंत्र का जितना बड़ा मजाक बनाया जा रहा है वह किसी ने किसी माध्यम से पूरी दुनिया में जा ही रहा है।

-डा.लाल रत्नाकर



शनिवार, 5 अप्रैल 2025

अमित शाह को किस अपराध में प्रदेश बदर किया गया था ?

अमित शाह को सोहराबुद्दीन शेख फर्जी मुठभेड़ मामले में गुजरात से प्रदेश बदर किया गया था। यह घटना 2005 में हुई थी, जब गुजरात पुलिस ने सोहराबुद्दीन शेख और उनकी पत्नी कौसर बी को एक कथित फर्जी मुठभेड़ में मार गिराया था। 2010 में, केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) ने इस मामले की जांच शुरू की और अमित शाह, जो उस समय गुजरात के गृह राज्य मंत्री थे, पर हत्या, अपहरण, और आपराधिक साजिश जैसे गंभीर आरोप लगाए गए। 

CBI को आशंका थी कि शाह अपनी राजनीतिक ताकत और प्रभाव का इस्तेमाल करके जांच को प्रभावित कर सकते थे। इसीलिए, सुप्रीम कोर्ट ने निष्पक्ष जांच सुनिश्चित करने के लिए अक्टूबर 2010 में उन्हें गुजरात से बाहर रहने का आदेश दिया। यह प्रतिबंध सितंबर 2012 तक लागू रहा। हालांकि, 2014 में सीबीआई की एक विशेष अदालत ने सबूतों के अभाव में उन्हें सभी आरोपों से बरी कर दिया। 

इस तरह, सोहराबुद्दीन शेख एनकाउंटर केस के चलते अमित शाह को गुजरात से प्रदेश बदर (तड़ीपार) किया गया था।

सोहराबुद्दीन शेख एनकाउंटर केस के सिलसिले में अमित शाह, जो उस समय गुजरात के गृह मंत्री थे, को काफी विवादों का सामना करना पड़ा था। यह मामला 2005 में सोहराबुद्दीन शेख की कथित फर्जी मुठभेड़ से जुड़ा था, जिसमें गुजरात पुलिस पर गंभीर आरोप लगे थे। इस केस की जांच सीबीआई ने की थी, और 2010 में अमित शाह पर हत्या, अपहरण और साजिश जैसे आरोप लगाए गए थे। 

सीबीआई की चार्जशीट के बाद, सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर अमित शाह को गुजरात से बाहर रहने का आदेश दिया गया था, जिसे आम भाषा में "प्रदेश बदर" या "तड़ीपार" कहा जाता है। उन्हें 2010 में गुजरात छोड़कर दिल्ली में रहना पड़ा था, और यह प्रतिबंध करीब दो साल तक लागू रहा। बाद में, 2014 में इस केस में उन्हें अदालत से राहत मिली, जब विशेष सीबीआई कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया। 

यह मामला भारतीय राजनीति में लंबे समय तक चर्चा का विषय रहा और इसे लेकर कई तरह के दावे-प्रतिदावे सामने आए। 

हां, अमित शाह पर हत्या, अपहरण और साजिश जैसे आरोप लगाए गए थे, खास तौर पर सोहराबुद्दीन शेख फर्जी एनकाउंटर केस के संदर्भ में। यह मामला 2005 का है, जब सोहराबुद्दीन शेख और उनकी पत्नी कौसर बी की कथित तौर पर गुजरात पुलिस द्वारा फर्जी मुठभेड़ में हत्या कर दी गई थी। बाद में 2006 में सोहराबुद्दीन के सहयोगी तुलसीराम प्रजापति की भी एनकाउंटर में मौत हुई थी। इन मामलों की जांच सीबीआई को सौंपी गई थी, और 2010 में सीबीआई ने अमित शाह, जो उस समय गुजरात के गृह मंत्री थे, पर हत्या, अपहरण, जबरन वसूली और साजिश जैसे गंभीर आरोप लगाए थे। सीबीआई ने दावा किया था कि शाह इस एनकाउंटर के पीछे की साजिश में शामिल थे। इसके चलते उन्हें गिरफ्तार किया गया और कुछ समय जेल में भी रहना पड़ा, साथ ही सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर उन्हें गुजरात से बाहर रहने का निर्देश दिया गया था।


हालांकि, 2014 में मुंबई की एक विशेष सीबीआई कोर्ट ने सबूतों के अभाव में अमित शाह को इस मामले में बरी कर दिया। कोर्ट ने कहा कि उनके खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं मिले और यह मामला "राजनीति से प्रेरित" लगता है। सीबीआई ने इसके बाद इस फैसले के खिलाफ अपील भी नहीं की। इसके अलावा, इशरत जहां एनकाउंटर केस (2004) में भी शाह का नाम आया था, लेकिन 2014 में सीबीआई की विशेष अदालत ने उनके खिलाफ पर्याप्त साक्ष्य न होने के कारण उन्हें आरोपी बनाने से इनकार कर दिया।

क्या जांच फिर शुरू हो सकती है?

कानूनी तौर पर, किसी मामले की जांच दोबारा शुरू करना संभव है, लेकिन इसके लिए कुछ शर्तें पूरी करनी होती हैं:

1. **नए सबूत**: अगर कोई नया और ठोस सबूत सामने आता है, जो पहले कोर्ट में पेश नहीं किया गया था, तो जांच फिर से शुरू करने की मांग की जा सकती है।

2. **उच्च न्यायालय का हस्तक्षेप**: सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के पास यह अधिकार है कि वह किसी मामले को दोबारा खोलने का आदेश दे, अगर उन्हें लगे कि न्याय नहीं हुआ या जांच में खामियां थीं।

3. **सीबीआई की पहल**: सीबीआई या कोई अन्य जांच एजेंसी, सरकार के निर्देश पर, नए आधार पर जांच शुरू कर सकती है, बशर्ते पर्याप्त कारण और सबूत हों।

फिलहाल, अप्रैल 2025 तक, इन मामलों में अमित शाह के खिलाफ कोई नई जांच शुरू होने की खबर नहीं है। 2014 में बरी होने के बाद ये मामले कानूनी रूप से बंद माने जाते हैं, और सीबीआई या अन्य पक्षों ने इसे दोबारा खोलने की कोई औपचारिक पहल नहीं की है। हालांकि, अगर भविष्य में कोई नया सबूत या राजनीतिक दबाव आता है, तो सैद्धांतिक रूप से जांच फिर शुरू हो सकती है, लेकिन यह काफी हद तक परिस्थितियों और कानूनी प्रक्रिया पर निर्भर करेगा।

क्या आपके पास इस बारे में कोई विशिष्ट सवाल है या आप किसी खास पहलू पर और जानकारी चाहते हैं?



रविवार, 23 मार्च 2025

भारतीय संविधान और मनुस्मृति में कई मूलभूत अंतर हैं




जुल्म की एक हद होती है 
जुल्मी हद पार करता रहता है 
जुल्मी की भी एकहद होती है 
उसके जुल्म हद पार करते हैं 
उसके वही जुल्म उसके लिए 
हद पार कर जाते हैं।
और उसका जो होता है सब जानते हैं। 
हजारों साल से जो जुर्म होता रहा है।
सीधा-साधा आदमी उसे अच्छी तरह समझ पा रहा है।
पर वह बोलता क्यों नहीं है। 
क्योंकि उसे मर्यादा में बांध दिया गया है। 
मर्यादा को किसने गढ़ा है। 
संविधान में तो सबको बराबर का हक है। 
वर्ण व्यवस्था ने आदमी को खंड-खंड में खड़ा कर दिया है। 
संविधान बड़ा है या मनु का विधान (मनुस्मृति) बड़ा है। 
संविधान मानने वाले या संविधान बचाने वाले सबसे ज्यादा मनुस्मृति मानते हैं।
तभी तो वर्ण व्यवस्था मानते हैं और वर्ण व्यवस्था में जातियों की भरमार है। 
जातियों के समीकरण से चल रही सरकार है।
क्यों मानते हो जातियां। 
आरक्षण के लिए या पुजारी बनने के लिए।
भेदभाव करने के लिए या किसी मंदिर के ट्रस्ट में रहने के लिए।
मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर जरूरी है या अस्पताल।

(2)
नदिया मैली हो गई है। 
उनकी सफाई पर बहुत सारे अभियान चलाए गए हैं। 
नदियों में शहरों का मल मूत्र लाया गया है।
उद्योगों का कचरा बहाया गया है।
प्राकृतिक तरीके से उसकी स्वच्छता को मिटाया गया है। 
कुंभ,महाकुंभ या स्नान के लिए 
सबसे पवित्र बताया गया है।
वर्ण व्यवस्था बचाने के लिए 
या संविधान मिटाने के लिए। 
विज्ञान के हिसाब से।
वज्ञ बहस भी करता है।
जो रोज अन्याय करता है। 
रोज घूस लेता है और ईमान बेचता है। 
उसका ईमान संविधान से बधा होता है।
मन मनुस्मृति में घुसा होता है
परोपकार के स्वांन्ग रचता है।
परोपकार नहीं करता।
वर्ण व्यवस्था के हिसाब से आचरण करता है। 
कभी बराबर में नहीं बैठता और न बराबर में बैठाता है।

आईऐ्ँ देखते हैं GROK AI क्या कहते हैं

भारतीय संविधान और मनुस्मृति में कई मूलभूत अंतर हैं, जो उनकी प्रकृति, उद्देश्य, समय और संदर्भ में निहित हैं।

नीचे इनके बीच प्रमुख अंतरों को संक्षेप में समझाया गया है: प्रकृति और उत्पत्ति:

भारतीय संविधान : 
यह एक आधुनिक, लिखित दस्तावेज है, जो 26 नवंबर 1949 को अपनाया गया और 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ। इसे भारत के संविधान सभा द्वारा तैयार किया गया था, जिसमें विभिन्न विचारधाराओं और समुदायों के प्रतिनिधि शामिल थे।

मनुस्मृति: 
यह एक प्राचीन हिंदू धार्मिक और सामाजिक ग्रंथ है, जिसे मनु द्वारा रचित माना जाता है। इसका रचनाकाल 200 ईसा पूर्व से 200 ईसवी के बीच माना जाता है। यह संस्कृत में लिखा गया और मुख्य रूप से धर्मशास्त्र का हिस्सा है।
उद्देश्य: 

भारतीय संविधान : 
इसका उद्देश्य एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समानता-आधारित समाज की स्थापना करना है। यह नागरिकों के अधिकारों, कर्तव्यों और शासन की रूपरेखा तय करता है।

मनुस्मृति: 
इसका उद्देश्य धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था को परिभाषित करना था, जिसमें वर्ण व्यवस्था और व्यक्तिगत आचरण के नियम शामिल हैं। यह मुख्य रूप से ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण को प्रतिबिंबित करता है।

संरचना और सामग्री:

भारतीय संविधान: 
इसमें 448 अनुच्छेद, 12 अनुसूचियाँ और 5 परिशिष्ट हैं (संशोधनों के साथ बदलाव संभव)। यह मौलिक अधिकार, नीति निर्देशक तत्व, और संघीय ढांचे जैसे विषयों को कवर करता है।

मनुस्मृति: 
यह 12 अध्यायों और 2,694 श्लोकों में विभाजित है। इसमें वर्णाश्रम व्यवस्था, विवाह, दंड, और कर्मकांड जैसे नियम शामिल हैं।

समानता बनाम असमानता:
भारतीय संविधान: 
यह सभी नागरिकों को समानता का अधिकार देता है (अनुच्छेद 14-18), जिसमें जाति, धर्म, लिंग या जन्म के आधार पर भेदभाव निषिद्ध है।
मनुस्मृति: यह वर्ण व्यवस्था को बढ़ावा देती है, जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के बीच असमानता को स्वीकार किया गया है। इसमें कुछ समूहों के लिए कठोर नियम और दंड निर्धारित हैं।

कानूनी स्थिति:

भारतीय संविधान: 
यह भारत का सर्वोच्च कानून है और सभी नागरिकों व संस्थाओं पर बाध्यकारी है।

मनुस्मृति: 
यह आज कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है, बल्कि एक ऐतिहासिक और धार्मिक ग्रंथ के रूप में देखी जाती है

लचीलापन:

भारतीय संविधान: 
यह संशोधन योग्य है और समय के साथ इसमें 100 से अधिक संशोधन हो चुके हैं।

मनुस्मृति: 
यह स्थिर है और इसमें कोई औपचारिक संशोधन की प्रक्रिया नहीं है, क्योंकि यह प्राचीन काल का ग्रंथ है।

संक्षेप में, भारतीय संविधान एक आधुनिक, लोकतांत्रिक और समावेशी शासन व्यवस्था का आधार है, 
जबकि मनुस्मृति प्राचीन सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं का प्रतिबिंब है, जो उस समय के संदर्भ में प्रासंगिक थी। 

आज के भारत में संविधान ही सर्वोपरि है।

जरा इस पर भी विचार करते हैं-
भारत में वर्ण व्यवस्था को समाप्त करना एक जटिल और बहुआयामी चुनौती है, क्योंकि यह प्राचीन सामाजिक संरचना धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परंपराओं से गहरे तक जुड़ी हुई है। हालाँकि, इसे समाप्त करने के लिए कुछ कदम और दृष्टिकोण अपनाए जा सकते हैं, जो सामाजिक समानता और आधुनिकीकरण की दिशा में ले जा सकते हैं। यहाँ कुछ संभावित उपाय दिए गए हैं:शिक्षा का प्रसार: शिक्षा सबसे शक्तिशाली हथियार है जो लोगों के बीच जागरूकता ला सकती है। जाति और वर्ण के आधार पर भेदभाव को खत्म करने के लिए स्कूलों और कॉलेजों में समानता, मानवाधिकार और सामाजिक न्याय पर जोर देना जरूरी है। जब लोग शिक्षित होते हैं, तो वे रूढ़िवादी मान्यताओं को चुनौती दे सकते हैं।कानूनी सुधार और सख्ती: भारत में संविधान (जैसे अनुच्छेद 15 और 17) पहले से ही जाति आधारित भेदभाव को प्रतिबंधित करता है। लेकिन इन कानूनों का प्रभावी ढंग से कार्यान्वयन जरूरी है। इसके लिए प्रशासनिक सुधार, त्वरित न्याय और भेदभाव के खिलाफ सख्त सजा सुनिश्चित करनी होगी।आर्थिक समानता: वर्ण और जाति व्यवस्था अक्सर आर्थिक असमानता से जुड़ी होती है। गरीबी उन्मूलन, रोजगार के अवसर बढ़ाना और सभी वर्गों के लिए समान आर्थिक नीतियाँ बनाना इस व्यवस्था को कमजोर कर सकता है। जब लोग आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होंगे, तो सामाजिक पदानुक्रम की प्रासंगिकता कम हो सकती है।सांस्कृतिक परिवर्तन: फिल्मों, साहित्य, और मीडिया के माध्यम से वर्ण व्यवस्था के खिलाफ जागरूकता फैलाना महत्वपूर्ण है। पारंपरिक मान्यताओं को चुनौती देने वाली कहानियाँ और संदेश समाज में बदलाव ला सकते हैं। साथ ही, अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहित करना भी एक प्रभावी कदम हो सकता है।धार्मिक सुधार: चूंकि वर्ण व्यवस्था का मूल कुछ हिंदू धार्मिक ग्रंथों से जुड़ा है, इसलिए प्रगतिशील धार्मिक नेताओं द्वारा इन ग्रंथों की पुनर्व्याख्या और समानता पर आधारित शिक्षाओं को बढ़ावा देना जरूरी है। धर्म को आधुनिक संदर्भ में ढालना इस व्यवस्था को कमजोर कर सकता है।सामाजिक आंदोलन: इतिहास में बाबासाहेब आंबेडकर, पेरियार, और ज्योतिबा फुले जैसे समाज सुधारकों ने वर्ण और जाति व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाई। आज भी ऐसे आंदोलनों की जरूरत है, जो स्थानीय स्तर पर लोगों को एकजुट करें और भेदभाव के खिलाफ लड़ें।राजनीतिक इच्छाशक्ति: सरकार को वर्ण व्यवस्था को खत्म करने के लिए ठोस नीतियाँ बनानी होंगी, जैसे आरक्षण को और प्रभावी बनाना, साथ ही इसे धीरे-धीरे मेरिट-आधारित व्यवस्था में बदलना, ताकि सामाजिक एकता बढ़े।यह प्रक्रिया धीमी होगी, क्योंकि यह सदियों पुरानी परंपरा है। लेकिन निरंतर प्रयास, जागरूकता और समानता की ओर बढ़ते कदम इसे कमजोर कर सकते हैं। 
क्या आपके पास इस विषय पर कोई विशिष्ट विचार या सुझाव है जिसे आप विस्तार से चर्चा करना चाहते हैं?