शुक्रवार, 28 नवंबर 2025
आरएसएस के संविधान विरोध पर गूगल का नज़रिया ! आइये जानते हैं गूगल का जवाब - एच एल दुसाध
बुधवार, 12 नवंबर 2025
चले जाओ यहां से। तुमने ही मेरे बेटे को मारा है।
नीच और तड़ीपार है तो मुमकिन है
नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी ऐसे ही छोड़ देगा? मौत का सौदागर है खून की नदियां बह जाएगी और कुर्सी नहीं छोड़ेगा।
एक थे हरेन पंड्या, अस्ट्रॉनॉट सुनीता विलियम्स के कजिन भाई और 25 साल पहले गुजरात भाजपा के कद्दावर नेता। तब गुजरात के नए-नवेले मुख्यमंत्री बने एक नेता को यह भरोसा नहीं था कि वे अपनी लोकप्रियता के दम पर एक चुनाव जीत सकते हैं। इसलिए वे नेता गुजरात की सबसे सेफ सीट, अर्थात अहमदाबाद की एलिस ब्रिज सीट से चुनाव लड़ना चाहते थे, जो कि हरेन पंड्या की सीट थी। पंड्या को उस व्यक्ति के तौर-तरीके पसंद नहीं थे, तो सीट देने से मना कर दिया। अदावत की खाई गहरी हो गयी।
बुधवार, 6 अगस्त 2025
देशभक्ति का प्रमाणपत्र
यहाँ पर मनोज कुमार झा द्वारा लिखे गए The Indian Express के 6 अगस्त, 2025 के लेख “A Certificate of Patriotism” का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है:
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देशभक्ति का प्रमाणपत्र
सुप्रीम कोर्ट की ‘सच्चे भारतीय’ पर टिप्पणी संस्थागत सीमाओं के उल्लंघन और संकीर्ण राष्ट्रवाद की वैधता की ओर इशारा करती है।
✍🏼 मनोज कुमार झा
यह अत्यंत चिंता की बात है जब देश की सर्वोच्च संवैधानिक संस्था यह बताने लगे कि एक ‘सच्चे भारतीय’ को कैसा होना चाहिए, क्या बोलना चाहिए, क्या महसूस करना चाहिए और कैसा व्यवहार करना चाहिए। जब यह परिभाषा किसी न्यायाधीश द्वारा दी जाती है, तो यह प्रश्न उठता है कि क्या यह नेता या किसी राजनीतिक विचारधारा के समर्थक का काम है या एक न्यायपालिका के सदस्य का?
‘सच्चे भारतीय’ की इस अवधारणा को जब न्यायिक निर्णयों में स्थान मिलने लगे, तो यह लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरे की घंटी है। यह अवधारणा एक विशिष्ट प्रकार की पहचान को वैधता देती है और दूसरों को संदिग्ध बनाती है, चाहे वे कितने भी ईमानदार और देशभक्त क्यों न हों।
यह विचारधारा केवल एक तरह की देशभक्ति को स्वीकृति देती है, जो अधिकतर वर्दी, झंडा और युद्ध के प्रतीकों तक सीमित होती है। ऐसे में जो लोग संविधान की आलोचना करते हैं, वे ‘देशद्रोही’ माने जाते हैं और जो चुपचाप स्वीकृति देते हैं, वे ‘सच्चे देशभक्त’।
मैंने पहले भी (इंडियन एक्सप्रेस में 29 सितंबर 2024 को) लिखा था कि “सरकारों की प्राथमिक जिम्मेदारी नागरिकों की गरिमा सुनिश्चित करना है, न कि ‘सच्चे भारतीयों’ की परिभाषा तय करना।”
यह भी ध्यान देने योग्य है कि ‘सच्चे भारतीय’ की इस परिभाषा को लागू करने में विविधता, असहमति और बहुलता को स्थान नहीं मिलता। लोकतंत्र की आत्मा समानता नहीं, बल्कि विविधता है। और जब यह विविधता एक निश्चित सोच के खिलाफ हो जाती है, तो उसे दबाया जाने लगता है – आलोचना को देशद्रोह बना दिया जाता है।
न्यायपालिका से यह अपेक्षा होती है कि वह सत्ता के अन्य अंगों पर निगरानी रखे – जैसे संसद, कार्यपालिका – और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करे। लेकिन जब न्यायिक टिप्पणियाँ स्वयं इन सीमाओं को पार करने लगें, तो खतरा और बढ़ जाता है।
हम यह कैसे तय करेंगे कि कौन ‘सच्चा भारतीय’ है? क्या यह बोलने की शैली से तय होगा, या किसी विशेष पार्टी से निकटता से? क्या यह आलोचना को चुप कराने का तरीका बन जाएगा?
लोकतंत्र में नागरिकों को यह अधिकार है कि वे सरकार की आलोचना करें, भले ही वह आलोचना तीखी क्यों न हो। यदि नागरिकों के ऐसे अधिकारों को दबाया जाएगा, तो वह ‘सच्चे भारतीय’ की वैधानिकता का प्रश्न नहीं, बल्कि लोकतंत्र के मूल ढांचे का प्रश्न होगा।
हमारे समय की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि आलोचना और असहमति को देशद्रोह या राष्ट्रविरोधी घोषित करने का चलन बढ़ता जा रहा है। यह खतरनाक प्रवृत्ति न केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को खत्म करती है, बल्कि हमारे संविधान की आत्मा को भी आहत करती है।
सुप्रीम कोर्ट और अन्य संवैधानिक संस्थाओं का यह दायित्व है कि वे इस प्रवृत्ति के खिलाफ खड़े हों। देशभक्ति की कोई एकल परिभाषा नहीं हो सकती। उसे न्यायपालिका की शक्ति का औजार नहीं बनाया जा सकता।
जब भी राजनीतिक भाषणों में न्यायपालिका को हथियार बनाया जाने लगे, तो यह लोकतंत्र के लिए चेतावनी होती है। न्यायपालिका को जनता का अंतिम आश्रय स्थल माना गया है – यह एक ऐसा संस्थान होना चाहिए जो मतभेद, असहमति और आलोचना को स्थान देता हो।
⸻लेखक राज्यसभा सांसद हैं, राष्ट्रीय जनता दल से।
शनिवार, 12 अप्रैल 2025
चाल चेहरा और चरित्र!
चाल चेहरा और चरित्र!
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इसी में सब कुछ अंतर्निहित है, यह उक्त स्लोगन से साफ-साफ नजर आता है और ऐसे में जिसको बलि का बकरा बनाया जाता है यदि वह यह कहे की हर बहस बेमानी है , जब उसकी नियुक्ति ही बेइमानी से हुई हो।
सर्वोच्च न्यायालय अपने ही आदेश को कैसे बदल दिए जाने पर चुप हो जाता है यह बहुत जटिल सवाल है "न्याय" की बात जब आती है तो न्याय दिखना भी चाहिए आम आदमी को उसमें विश्वास भी होना चाहिए क्या यह किसी को भी भरोसेमंद लगता है कि एक पार्टी के दो लोग तीन सदस्य समिति में जिस पर कोई और निगरानी ना हो सके द्वारा लिए गए फैसले कैसे उचित हो सकते हैं।
यही से शुरू होता है चुनाव आयोग के हर कदम का हिसाब किताब । देश के सर्वोच्च पद पर बैठा हुआ व्यक्ति अब तक के सारे नेताओं को नाकारा और बेईमान बताता हो यह बात सुनने में कितनी अच्छी लगती है लेकिन जब उसे पर बहस होती है तो यह सब बकवास की श्रेणी में डाल दिया जाता है और जुमला कहकर के टाल दिया जाता है।
वर्तमान व्यवस्था द्वारा हर तरह से नियंत्रित किया गया है लिखने पर, बनाने पर, बोलने पर, किसी तरह के भी बयान पर अदृश्य पाबंदी कम कर रही है और अगर कोई पाबंदी नहीं है तो लोग डरे क्यों हैं क्यों सड़कों पर नहीं उतर रहे हैं बड़ी-बड़ी पार्टियों के लोग चुपचाप चुनाव हार जाते हैं, जनता इनके खिलाफ है फिर भी यह चुनाव जीत जाते हैं विपक्ष इस पर आवाज नहीं उठाता। यह सब कितना आश्चर्यजनक लग रहा है क्योंकि हम उस जमाने के हैं जब किसी भी लेवल पर बेईमानी होती थी तो तूफान खड़ा हो जाता था। कितना भी शक्तिशाली नेता हो इसका विरोध होता था और बुरी तरह से विरोध होता था।
चुनाव आयोग को यदि लें तो इसपर अमेरिका के तीन अलग अलग लोगों ने कहा की EVM सुरक्षित नहीं है उसके साथ छेड़छाड़ की जा सकत है डोनाल्ड ट्रम्प ,एलेन मॉस्क , तुलसी गबार्ड। लेकिन हमारा चुनाव आयोग इसको मानने को तैयार नहीं है ? क्यों ?
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| इसमें मेरा क्या दोष है जब मेरी नियुक्ति ही बेईमानी के लिए की गयी है ? क्या यह आपको दिख नहीं रहा है |
आम आदमी की सोच को बदलने का जितना प्रयोग इस समय हुआ है जो इससे पहले संभवत: कभी नहीं हुआ । संविधान और लोकतंत्र जो अधिकार देता है उसका अनुपालन न्यायालय और ब्यूरोक्रेसी द्वारा किया जाता है क्या आज इस पर किसी को भरोसा रह गया है और भरोसा ना रहने का कारण क्या है क्या इन संस्थानों में बैठे हुए लोग विदेश से ले गए हैं या उन्हें गुलाम बना लिया गया है उन्होंने जो शपथ ली है क्या उसके प्रति ईमानदार हैं या उन्हें अलग से शपथ दिलाई गई है कि वह वर्तमान सत्ता के हर गलत सही फैसले के साथ खड़े रहेंगे।
लगभग हर सवाल का जवाब यही आता है कि जो भी संस्थाएं हैं वह अपने में ईमानदार नहीं है, इस सबके लिए हमें धन्यवाद करना चाहिए उन पत्रकारों, उन अभिनयकर्ताओं और नेताओं का जो निरंतर लड़ रहे हैं।
इसी के साथ हमें यह भी विचार करना होगा कि पूरी दुनिया में हमारे देश की जो छवि बन रही है वह कितनी कमजोर और कितनी बदनामी वाली हो रही है क्योंकि यहां पर संविधान का लोकतंत्र का जितना बड़ा मजाक बनाया जा रहा है वह किसी ने किसी माध्यम से पूरी दुनिया में जा ही रहा है।
-डा.लाल रत्नाकर
शनिवार, 5 अप्रैल 2025
अमित शाह को किस अपराध में प्रदेश बदर किया गया था ?
CBI को आशंका थी कि शाह अपनी राजनीतिक ताकत और प्रभाव का इस्तेमाल करके जांच को प्रभावित कर सकते थे। इसीलिए, सुप्रीम कोर्ट ने निष्पक्ष जांच सुनिश्चित करने के लिए अक्टूबर 2010 में उन्हें गुजरात से बाहर रहने का आदेश दिया। यह प्रतिबंध सितंबर 2012 तक लागू रहा। हालांकि, 2014 में सीबीआई की एक विशेष अदालत ने सबूतों के अभाव में उन्हें सभी आरोपों से बरी कर दिया।
इस तरह, सोहराबुद्दीन शेख एनकाउंटर केस के चलते अमित शाह को गुजरात से प्रदेश बदर (तड़ीपार) किया गया था।
सोहराबुद्दीन शेख एनकाउंटर केस के सिलसिले में अमित शाह, जो उस समय गुजरात के गृह मंत्री थे, को काफी विवादों का सामना करना पड़ा था। यह मामला 2005 में सोहराबुद्दीन शेख की कथित फर्जी मुठभेड़ से जुड़ा था, जिसमें गुजरात पुलिस पर गंभीर आरोप लगे थे। इस केस की जांच सीबीआई ने की थी, और 2010 में अमित शाह पर हत्या, अपहरण और साजिश जैसे आरोप लगाए गए थे।
सीबीआई की चार्जशीट के बाद, सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर अमित शाह को गुजरात से बाहर रहने का आदेश दिया गया था, जिसे आम भाषा में "प्रदेश बदर" या "तड़ीपार" कहा जाता है। उन्हें 2010 में गुजरात छोड़कर दिल्ली में रहना पड़ा था, और यह प्रतिबंध करीब दो साल तक लागू रहा। बाद में, 2014 में इस केस में उन्हें अदालत से राहत मिली, जब विशेष सीबीआई कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया।
यह मामला भारतीय राजनीति में लंबे समय तक चर्चा का विषय रहा और इसे लेकर कई तरह के दावे-प्रतिदावे सामने आए।
हां, अमित शाह पर हत्या, अपहरण और साजिश जैसे आरोप लगाए गए थे, खास तौर पर सोहराबुद्दीन शेख फर्जी एनकाउंटर केस के संदर्भ में। यह मामला 2005 का है, जब सोहराबुद्दीन शेख और उनकी पत्नी कौसर बी की कथित तौर पर गुजरात पुलिस द्वारा फर्जी मुठभेड़ में हत्या कर दी गई थी। बाद में 2006 में सोहराबुद्दीन के सहयोगी तुलसीराम प्रजापति की भी एनकाउंटर में मौत हुई थी। इन मामलों की जांच सीबीआई को सौंपी गई थी, और 2010 में सीबीआई ने अमित शाह, जो उस समय गुजरात के गृह मंत्री थे, पर हत्या, अपहरण, जबरन वसूली और साजिश जैसे गंभीर आरोप लगाए थे। सीबीआई ने दावा किया था कि शाह इस एनकाउंटर के पीछे की साजिश में शामिल थे। इसके चलते उन्हें गिरफ्तार किया गया और कुछ समय जेल में भी रहना पड़ा, साथ ही सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर उन्हें गुजरात से बाहर रहने का निर्देश दिया गया था।
हालांकि, 2014 में मुंबई की एक विशेष सीबीआई कोर्ट ने सबूतों के अभाव में अमित शाह को इस मामले में बरी कर दिया। कोर्ट ने कहा कि उनके खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं मिले और यह मामला "राजनीति से प्रेरित" लगता है। सीबीआई ने इसके बाद इस फैसले के खिलाफ अपील भी नहीं की। इसके अलावा, इशरत जहां एनकाउंटर केस (2004) में भी शाह का नाम आया था, लेकिन 2014 में सीबीआई की विशेष अदालत ने उनके खिलाफ पर्याप्त साक्ष्य न होने के कारण उन्हें आरोपी बनाने से इनकार कर दिया।
क्या जांच फिर शुरू हो सकती है?
कानूनी तौर पर, किसी मामले की जांच दोबारा शुरू करना संभव है, लेकिन इसके लिए कुछ शर्तें पूरी करनी होती हैं:
1. **नए सबूत**: अगर कोई नया और ठोस सबूत सामने आता है, जो पहले कोर्ट में पेश नहीं किया गया था, तो जांच फिर से शुरू करने की मांग की जा सकती है।
2. **उच्च न्यायालय का हस्तक्षेप**: सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के पास यह अधिकार है कि वह किसी मामले को दोबारा खोलने का आदेश दे, अगर उन्हें लगे कि न्याय नहीं हुआ या जांच में खामियां थीं।
3. **सीबीआई की पहल**: सीबीआई या कोई अन्य जांच एजेंसी, सरकार के निर्देश पर, नए आधार पर जांच शुरू कर सकती है, बशर्ते पर्याप्त कारण और सबूत हों।
फिलहाल, अप्रैल 2025 तक, इन मामलों में अमित शाह के खिलाफ कोई नई जांच शुरू होने की खबर नहीं है। 2014 में बरी होने के बाद ये मामले कानूनी रूप से बंद माने जाते हैं, और सीबीआई या अन्य पक्षों ने इसे दोबारा खोलने की कोई औपचारिक पहल नहीं की है। हालांकि, अगर भविष्य में कोई नया सबूत या राजनीतिक दबाव आता है, तो सैद्धांतिक रूप से जांच फिर शुरू हो सकती है, लेकिन यह काफी हद तक परिस्थितियों और कानूनी प्रक्रिया पर निर्भर करेगा।
क्या आपके पास इस बारे में कोई विशिष्ट सवाल है या आप किसी खास पहलू पर और जानकारी चाहते हैं?









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