बहन जी और नेता जी को ब्राह्मण मोह होने के कारण उनका दलितों और पिछड़ों से मोह घट रहा है, या यूँ कहें की ये दलितों और पिछडों को अपनी जागीर समझते हैं।
उत्तर प्रदेश का सच ये है की मा-कांशीराम (के दलित मूवमेंट) ने कांग्रेस के पम्परागत वोटर काटकर अलग किये और राज्य का राजनैतिक स्वरुप बदला कांग्रेस ख़तम हो गयी ब्राहमणों की बची खुची राजनीति को वी-पी - सिंह की 'लहर' ने ख़त्म किया।
कहीं से भाजपा ने कुछ ब्राह्मणों को बटोरा या कहें इनको यहाँ संभावानाएं दिखीं और ये सब इधर एकजूट हुए पर यह मामला स्थायी नहीं लगा देश के बहुतेरे हिस्से से अन्य जातीय समीकरणों ने ब्राह्मणों की सत्ता की चुनौती को स्वीकार नहीं किया और 'नागपुर' के अलावा अन्य 'सवर्ण' जातियों को भी संभवतः ये रास नहीं आये और इन्हें किनारे कर दिया।
"जाएँ तो जाएँ कहाँ" की हालत में 'बहन' जी का दामन पकड़ा और पुनः उत्तर प्रदेश की राजनीति में 'दखल' की पुरजोर साजिश हासिल की। (साजिश इसलिए की सत्ता के भूखे ये इस नए समीकरण में दाखिल हुए) यह प्रयोग बहनजी को भी भा गया, पर इस अभियान से दलित बुद्धिजीवी और अफसर दोनों सशंकित था की यह 'समीकरण' जिसे किसी तरह तोड़ा गया था। पुनः उसी समीकरण में वापसी इतनी भयावह होगी इसका अंदाजा तब लगा जब लूट की सारी जिम्मेदारी बहन जी के मत्थे आयी। (इस काल के घोटालों की लिस्ट में नामों को देखा जा सकता है)
यदि यही सब चलता रहा तो आज की प्रातः कालीन बहस का यह विन्दु की 'दलित और पिछड़े एक नहीं होने दिए जायेंगे' की चुनौती में दम दीखता है, क्योंकि जिस तरह से दोनों नेताओं में ब्राह्मणों में घुसपैठ की होड़ लगी है, उससे तो यह बात और प्रभावी हो जाती है, जो चिंता का विषय तो है पर संभावनाएं यहीं समाप्त नहीं हो जातीं, पिछड़ों के अगड़े और दलितों के सुविधाभोगी मूल रूप से इस आन्दोलन के लिए खतरनाक साबित होंगें जबकि इन्ही से आशा की जाती है की ये ही आन्दोलन को आगे ले जा सकते हैं।
अब सवाल है की यह आन्दोलन जीवित तो है, संभावित भी है संयोजन कैसे हो, किसका कितना हिस्सा हो राज्य में या आन्दोलन में, यहीं से इमानदारी और त्याग की जरूरत दिखती है। अब पहल कहाँ से हो कौन आगे आये क्रियान्वयन के लिए।
इस आन्दोलन की शकल राजनैतिक होने के खतरे बहुत हैं आंतरिक और वाह्य दोनों, इनसे उबरना होगा अब जैसे जो नए पिछड़े बने हैं उनकी इस सामजिक आन्दोलन के प्रति उतनी इमानदारी नहीं है, सबकी अपनी समस्याएं भी हैं उनका निदान कैसे हो।
यह सब मुद्दे हैं जिनपर हमें कार्य योजना बनानी है इसके विशेषग्य अपनी राय दें तो यह आन्दोलन आगे आ सकता है, नेत्रित्व की भी आवश्यकता होगी जिसे आर्थिक मदद भी जुटानी होगी इन सबसे जटिल होगा बुद्धिजीवियों का विश्वास हासिल करना और बिकने वालों से बचना भी।
-संयोजक
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