शनिवार, 24 अगस्त 2013

सपा कहीं ''बीजेपी'' के लिए रास्ता तो नहीं तैयार कर रही है ;


  • सपा कहीं ''बीजेपी'' के लिए रास्ता तो नहीं तैयार कर रही है ;
    जिसपर चलकर ये कांग्रेस की मदद करना चाहते हों ;
    भाजपा की साम्प्रदायिक छवि तैयार करने के चक्कर में सपा कहीं अपने लिए बड़े खतरे न खड़े कर ले, वैसे भी यह पार्टी जिन लोगों के चंगुल में फास चुकी है वो अधिकाँश लोग उसी भाजपा और कांग्रेस की लाइन के सोच के ही लोग हैं.
    अखिलेश यादव के जिस युवा चरित्र और नए उर्जावान चहरे को लोगों ने देखने का भ्रम पाला था वह नक्कारखाने में टूटी हुयी आवाज़ के रूप में ही सामने आ रहा है, यदि भाजपा का अंतर्कलह उसे गच्चा नहीं दिया तो सपा अनचाहे इतना उलटा करेगी जो इन संघियों के बहुत काम आयेगा.
    भाजपा/कांग्रेस के जो लोग सपा के गर्भगृह में बैठे हैं उसका मूल कारण यह है की सपा कभी अपने इमानदार कैडर बनाती ही नहीं है, कहीं से वोट के हिसाब से महाभ्रष्ट, जातिवादी, साम्प्रदायिक तत्वों को अपने इर्दगिर्द रखती है जिससे इसकी नीतियाँ ही इसके खिलाफ जाती हैं.
    रहा है. मिशन २०१४ के चलते प्रदेश में केवल २०१४ के लोकसभा के चुनाव की तैयारियां चल रही हैं, प्रदेश का मुख्यमंत्री देश के प्रधानमंत्री बनाये जाने के सपा प्रमुख के लिए वोट के इंतजामात में 'अनाप सनाप फैसले' ले रहा है 'आरक्षण' की लम्बी लड़ाई का खात्मा कर रहा है, तुष
    इस बार की सरकार जिस तरह, जिन कारणों से बनी है कौन नहीं जानता. ऐसे सुयोग्य अवसर को छोड़कर ये उन्ही हालातों में पहुँच गए हैं जहां से जनता किसी भी सरकार को बाहर कर देती है. प्रदेश अनेक संकटों से जल रहा है चरों तरफ हाहाकार मचा हुआ है पर इन्हें नज़र ही नहीं
    आकरण के तमाम फैसले ले रहा है, अपनों और परायों के बीच का अंतर भूल गया है, यही साड़ी बातें हैं जो अंदर तक नुक्सान पहुंचाती/करती हैं.
    जिस कांग्रेस के इशारों पर सपा बसपा ,'थिरक' रही हैं राजनितिक विश्लेषक उस मर्म को समझते हैं और अब वे यह भी जान गए हैं की ये देश की सत्ता के विकल्प नहीं है बल्कि कांग्रेस के सहयोगी ही हैं. यह आश्चर्य देश की अवाम जिसे दलित और पिछड़े के रूप में पहचाना जाता है कब समझेगा.
    ना अब उतना आसान नहीं है क्योंकि ये आधुनिकता ही उस पुरातन सोच के समापन के लिए आयात की गयी है जिसमें समाजवाद के सारे सपने डुबोये जा चुके हैं सामाजिक न्याय की अवधारणा के मायने बदल दिए गए हैं तभी तो दलित और पिछड़े के पार्टी रूप में पहचान रखने वाली पार्टियाँ उनके हक और हकुकों के लिए काम कर रही हैं जो सदियों से सब कुछ कब्जियाये हुए हैं. मुझे लगता है जिस अस्मिता की रक्षा के लिए मुल
    यही कारण है की नरेन्द्र के राष्ट्रवाद से कांग्रेस कत्तई भयभीत नहीं है, इसलिए भी की जिस हिंदुत्व का बुखार भाजपाई चढ़ाना चाहते हैं उसी हिन्दू में देश की 85 फीसदी अवाम दलित और पिछड़े के रूप में मौजूद हैं जिसे ये अलमबरदार अपने अपने खांचे में जातियों के हिसाब से बाटेंगे.जिसका असर यह होगा की 'मोदी' का उभार भी दब जाएगा और दलित और पिछड़े के रूप में बड़े समुदाय का भी हिसाब हो जाएगा.
    आधुनिक भारत को सम
    झयम सिंह ने सारी बदनामी ली उसी मस्जिद को नरसिंघा राव की कांग्रेस सरकार ने ध्वस्त करा दिया था. वो काम भी इन दोनों ने भाजपा के लिए ही किया था वैसे ही आज के आसार नज़र आ रहे हैं.
    आखिर विकल्प क्या है ;
    विकल्प है ;
    इसपर चले कौन जिस समय लालू ने अडवानी के रथ को रोका था उस समय की रोक और आज की इस रोक में अंतर ये है की तब अवाम को मंडल का भुत सवार था और अडवानी कमंडल के बहाने मंडल का विरोध कर रहे थे, इस बात को लालू समझा पाने में कामयाब हुए थे. पर अब सरकार इस धार्मिक पाखण्ड को कैसे पहचानेगी, क्या नाम देगी इसे अपने हक़ में कैसे करेगी सब सवाल उसके पाले में ही है. (उत्तर तो इसके हैं पर देखना है सरकार क्या करती है.)
    आखिर विकल्प क्या है ? विकल्प है! प
    -डॉ.लाल रत्नाकर
  • Omprakash Kashyap
    नमस्कार. आपने एक ज्वलंत समस्या की ओर संकेत किया है. इसमें कोई संदेह नहीं कि समाजवादी पार्टी, साथ में दूसरी पार्टियां भी केवल लोकप्रिय राजनीति को ध्यान में रखकर निर्णय ले रही हैं. लोकप्रिय राजनीति की यह विवशता भी है. पर समस्या का दूसरा पहलू भी है. और वह है बौद्धिक नेतृत्व की कमी. समाजवादी पार्टी का गठन एक विचारधारा के आधार पर किया गया था. या यूं कहें कि मुलायम लोहिया से नाम पर अपनी राजनीतिक मत्त्वाकांक्षाओं को साधना चाहते थे. आज पूंजीवाद के आलोचक हो हजारों हैं, जिसको देखो वही इसे कोसने लगता है, किंतु उसके विकल्प पर बात करने वाले या उसकी खोज के लिए समर्पित विद्वान बहुत कम हैं. इसलिए समाजवाद आज गया—बीता और थका हुआ विचार लगता है. मुलायम जानते हैं कि समाजवाद का नारा उन्हें ज्यादा दूर नहीं ले जा सकता. इसलिए पिछले चुनावों में वे अंबानी के करीब आ गए थे. ऐसे में उनके लिए तुष्टीकरण की राजनीति ही बचती है. यात्रा पर प्रतिबंध लगाने से उन्हें लगता है कि इससे मुस्लिम गोलबंध होंगे. इसलिए को आगे किया गया है. यह मुलायम या कहो कि लोकप्रिय राजनीति की विवशता है.
    समस्या का एक और पहलू भी है. समाजवादी पार्टी की तरह भाजपा भी विचारधारा आधारित पार्टी है. उग्र राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता के बहाने वह दक्षिणपंथी ताकतों को सत्ता में लाना चाहती है. इसके लिए उसको संघ, विश्व हिंदू परिषद आदि संस्थाओं का बौद्धिक नेतृत्व प्राप्त होता है. भाजपा जानती है कि इन संस्थाओं के आधार पर देश का बड़ा वर्ग गोलबंद हो सकता है. इसलिए इनके निर्देश को मानना उसकी मजबूरी बनी रहती है. विडंबना है कि आजादी के सातवें दशक में भी, संख्या में बहुसंख्यक वर्ग होने के बावजूद पिछड़ों के भीतर से बौद्धिक नेतृत्व नहीं उभर पाया है, जो पिछड़ा राजनीति का बौद्धिक नेतृत्व कर सके. आंबेडकर के नाम पर दलित एकजुट हुए और लंबे संघर्ष के बाद उनके भीतर एक बौद्धिक नेतृत्व विकसित किया. जो दलितों के हितों पर आंच आते ही सक्रिय हो उठता है. मीडिया के वर्णवादी सोच और अघोषित प्रतिबंधों के बावजूद ऐसे अवसर पर अखबार लेख और प्रतिक्रियाओं से भर जाते हैं.
    के बावजूद तत्संबंधी फैसलों पर अमल नहीं करा पाते. हम सब अच्छे आलोचक हैं. इस कर्म में ईमानदार भी हैं, लेकिन अच्छे परामर्शक नहीं है. इसका एक कारण हम सबकी मानसिकता पर अभिजन संस्कृति का असर भी है. सदियों से शासित होते आए हैं, इसलिए शासन की राह निकालना, उसको सुरक्षित रहता, शासकों को उन्हीं के मोर्चे पर मात देना हमें नहीं आता. हमारी यह कमजोरी मुलायम सिंह जैसे पिछड़ी राजनीति करने वाले नेताओं की भी कमजोरी है. आज पिछड़ों में मध्यवर्ग की संख्या काफी है. यदि पिछड़ा वर्ग का बौद्धिक मानस बन सके, और वह अपने वर्ग से निरंतर संवाद करे तो इस देश में बदलाव की एक राह निकल सकती है, वरना मजबूरी हो या स्वार्थवश मुलायम और मायावती जैसे नेता समाज के शीर्षस्थ वर्ग के नेताओं के इशारे/कूटनीति पर खेलते ही रहेंगे.
    पिछड़ा राजनीति के साथ ऐसा नहीं है. यदि होता तो मीडिया के उस खेल का तार्किक पर्दाफाश कर पाता जो बार—बार यह कहकर उकसाता रहता है कि मायावती और मुलायम मिल ही नहीं सकते. दलित और पिछड़ों ने शताब्दियों से जातीय उत्पीड़न का दंश सहा है. दोनों की त्रासदियां लगभग एक जैसी हैं. इसलिए वे एक—दूसरे के स्वाभाविक सहयोगी बन सकते हैं. समाज से वर्णवादी सोच का खात्मा करने, उसके समर्थकों को धूल चटाने के लिए उन्हें बनना भी चाहिए. जो मीडिया यह कहता है कि राजनीति में कोई स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता, वही मायावती और मुलायम के पुराने झगड़ों की याद दिलाकर उनके बीच दूरी बनाए रखता है. इसलिए मायावती वर्णवादी ब्राह्मणों की शरण में चली जाती है, मुलायम ठाकुरों की लल्लो—चप्पो में लगे रहते हैं लेकिन,ये दोनों ही, अपने स्वाभाविक सहयोगियों के करीब आने से बचते हैं. इसलिए मायावती के सक्रिय राजनीत में रहते दलितों के आरक्षण पर आंच आती है, मुलायम सूबे में सरकार हो
    ने


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