शनिवार, 12 अप्रैल 2025

चाल चेहरा और चरित्र!

 चाल चेहरा और चरित्र! 

----------

इसी में सब कुछ अंतर्निहित है, यह उक्त स्लोगन से साफ-साफ नजर आता है और ऐसे में जिसको बलि का बकरा बनाया जाता है यदि वह यह कहे की हर बहस बेमानी है , जब उसकी नियुक्ति ही बेइमानी  से हुई हो।

सर्वोच्च न्यायालय अपने ही आदेश को कैसे बदल दिए जाने पर चुप हो जाता है यह बहुत जटिल सवाल है "न्याय" की बात जब आती है तो न्याय दिखना भी चाहिए आम आदमी को उसमें विश्वास भी होना चाहिए क्या यह किसी को भी भरोसेमंद लगता है कि एक पार्टी के दो लोग तीन सदस्य समिति में जिस पर कोई और निगरानी ना हो सके द्वारा लिए गए फैसले कैसे उचित हो सकते हैं।

यही से शुरू होता है चुनाव आयोग के हर कदम का हिसाब किताब । देश के सर्वोच्च पद पर बैठा हुआ व्यक्ति अब तक के सारे नेताओं को नाकारा और बेईमान बताता हो यह बात सुनने में कितनी अच्छी लगती है लेकिन जब उसे पर बहस होती है तो यह सब बकवास की श्रेणी में डाल दिया जाता है और जुमला कहकर के टाल दिया जाता है।

वर्तमान व्यवस्था द्वारा हर तरह से नियंत्रित किया गया है लिखने पर, बनाने पर, बोलने पर, किसी तरह के भी बयान पर अदृश्य पाबंदी कम कर रही है और अगर कोई पाबंदी नहीं है तो लोग डरे क्यों हैं क्यों सड़कों पर नहीं उतर रहे हैं बड़ी-बड़ी पार्टियों के लोग चुपचाप चुनाव हार जाते हैं, जनता इनके खिलाफ है फिर भी यह चुनाव जीत जाते हैं विपक्ष इस पर आवाज नहीं उठाता। यह सब कितना आश्चर्यजनक लग रहा है क्योंकि हम उस जमाने के हैं जब किसी भी लेवल पर बेईमानी होती थी तो तूफान खड़ा हो जाता था। कितना भी शक्तिशाली नेता हो इसका विरोध होता था और बुरी तरह से विरोध होता था।

चुनाव आयोग को यदि लें तो इसपर अमेरिका के तीन अलग अलग लोगों ने कहा की EVM सुरक्षित नहीं है उसके साथ छेड़छाड़ की जा सकत है डोनाल्ड ट्रम्प ,एलेन मॉस्क , तुलसी गबार्ड। लेकिन हमारा चुनाव आयोग इसको मानने को तैयार नहीं है ? क्यों ?

इसमें मेरा क्या दोष है जब मेरी नियुक्ति ही
बेईमानी के लिए की गयी है ?

क्या यह आपको दिख नहीं रहा है 

आम आदमी की सोच को बदलने का जितना प्रयोग इस समय हुआ है जो इससे पहले संभवत: कभी नहीं हुआ । संविधान और लोकतंत्र जो अधिकार देता है उसका अनुपालन न्यायालय और ब्यूरोक्रेसी द्वारा किया जाता है क्या आज इस पर किसी को भरोसा रह गया है और भरोसा ना रहने का कारण क्या है क्या इन संस्थानों में बैठे हुए लोग विदेश से ले गए हैं या उन्हें गुलाम बना लिया गया है उन्होंने जो शपथ ली है क्या उसके प्रति ईमानदार हैं या उन्हें अलग से शपथ दिलाई गई है कि वह वर्तमान सत्ता के हर गलत सही फैसले के साथ खड़े रहेंगे। 

लगभग हर सवाल का जवाब यही आता है कि जो भी संस्थाएं हैं वह अपने में ईमानदार नहीं है, इस सबके लिए  हमें धन्यवाद करना चाहिए उन पत्रकारों, उन अभिनयकर्ताओं और नेताओं का जो निरंतर लड़ रहे हैं। 

इसी के साथ हमें यह भी विचार करना होगा कि पूरी दुनिया में हमारे देश की जो छवि बन रही है वह कितनी कमजोर और कितनी बदनामी वाली हो रही है क्योंकि यहां पर संविधान का लोकतंत्र का जितना बड़ा मजाक बनाया जा रहा है वह किसी ने किसी माध्यम से पूरी दुनिया में जा ही रहा है।

-डा.लाल रत्नाकर



शनिवार, 5 अप्रैल 2025

अमित शाह को किस अपराध में प्रदेश बदर किया गया था ?

अमित शाह को सोहराबुद्दीन शेख फर्जी मुठभेड़ मामले में गुजरात से प्रदेश बदर किया गया था। यह घटना 2005 में हुई थी, जब गुजरात पुलिस ने सोहराबुद्दीन शेख और उनकी पत्नी कौसर बी को एक कथित फर्जी मुठभेड़ में मार गिराया था। 2010 में, केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) ने इस मामले की जांच शुरू की और अमित शाह, जो उस समय गुजरात के गृह राज्य मंत्री थे, पर हत्या, अपहरण, और आपराधिक साजिश जैसे गंभीर आरोप लगाए गए। 

CBI को आशंका थी कि शाह अपनी राजनीतिक ताकत और प्रभाव का इस्तेमाल करके जांच को प्रभावित कर सकते थे। इसीलिए, सुप्रीम कोर्ट ने निष्पक्ष जांच सुनिश्चित करने के लिए अक्टूबर 2010 में उन्हें गुजरात से बाहर रहने का आदेश दिया। यह प्रतिबंध सितंबर 2012 तक लागू रहा। हालांकि, 2014 में सीबीआई की एक विशेष अदालत ने सबूतों के अभाव में उन्हें सभी आरोपों से बरी कर दिया। 

इस तरह, सोहराबुद्दीन शेख एनकाउंटर केस के चलते अमित शाह को गुजरात से प्रदेश बदर (तड़ीपार) किया गया था।

सोहराबुद्दीन शेख एनकाउंटर केस के सिलसिले में अमित शाह, जो उस समय गुजरात के गृह मंत्री थे, को काफी विवादों का सामना करना पड़ा था। यह मामला 2005 में सोहराबुद्दीन शेख की कथित फर्जी मुठभेड़ से जुड़ा था, जिसमें गुजरात पुलिस पर गंभीर आरोप लगे थे। इस केस की जांच सीबीआई ने की थी, और 2010 में अमित शाह पर हत्या, अपहरण और साजिश जैसे आरोप लगाए गए थे। 

सीबीआई की चार्जशीट के बाद, सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर अमित शाह को गुजरात से बाहर रहने का आदेश दिया गया था, जिसे आम भाषा में "प्रदेश बदर" या "तड़ीपार" कहा जाता है। उन्हें 2010 में गुजरात छोड़कर दिल्ली में रहना पड़ा था, और यह प्रतिबंध करीब दो साल तक लागू रहा। बाद में, 2014 में इस केस में उन्हें अदालत से राहत मिली, जब विशेष सीबीआई कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया। 

यह मामला भारतीय राजनीति में लंबे समय तक चर्चा का विषय रहा और इसे लेकर कई तरह के दावे-प्रतिदावे सामने आए। 

हां, अमित शाह पर हत्या, अपहरण और साजिश जैसे आरोप लगाए गए थे, खास तौर पर सोहराबुद्दीन शेख फर्जी एनकाउंटर केस के संदर्भ में। यह मामला 2005 का है, जब सोहराबुद्दीन शेख और उनकी पत्नी कौसर बी की कथित तौर पर गुजरात पुलिस द्वारा फर्जी मुठभेड़ में हत्या कर दी गई थी। बाद में 2006 में सोहराबुद्दीन के सहयोगी तुलसीराम प्रजापति की भी एनकाउंटर में मौत हुई थी। इन मामलों की जांच सीबीआई को सौंपी गई थी, और 2010 में सीबीआई ने अमित शाह, जो उस समय गुजरात के गृह मंत्री थे, पर हत्या, अपहरण, जबरन वसूली और साजिश जैसे गंभीर आरोप लगाए थे। सीबीआई ने दावा किया था कि शाह इस एनकाउंटर के पीछे की साजिश में शामिल थे। इसके चलते उन्हें गिरफ्तार किया गया और कुछ समय जेल में भी रहना पड़ा, साथ ही सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर उन्हें गुजरात से बाहर रहने का निर्देश दिया गया था।


हालांकि, 2014 में मुंबई की एक विशेष सीबीआई कोर्ट ने सबूतों के अभाव में अमित शाह को इस मामले में बरी कर दिया। कोर्ट ने कहा कि उनके खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं मिले और यह मामला "राजनीति से प्रेरित" लगता है। सीबीआई ने इसके बाद इस फैसले के खिलाफ अपील भी नहीं की। इसके अलावा, इशरत जहां एनकाउंटर केस (2004) में भी शाह का नाम आया था, लेकिन 2014 में सीबीआई की विशेष अदालत ने उनके खिलाफ पर्याप्त साक्ष्य न होने के कारण उन्हें आरोपी बनाने से इनकार कर दिया।

क्या जांच फिर शुरू हो सकती है?

कानूनी तौर पर, किसी मामले की जांच दोबारा शुरू करना संभव है, लेकिन इसके लिए कुछ शर्तें पूरी करनी होती हैं:

1. **नए सबूत**: अगर कोई नया और ठोस सबूत सामने आता है, जो पहले कोर्ट में पेश नहीं किया गया था, तो जांच फिर से शुरू करने की मांग की जा सकती है।

2. **उच्च न्यायालय का हस्तक्षेप**: सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के पास यह अधिकार है कि वह किसी मामले को दोबारा खोलने का आदेश दे, अगर उन्हें लगे कि न्याय नहीं हुआ या जांच में खामियां थीं।

3. **सीबीआई की पहल**: सीबीआई या कोई अन्य जांच एजेंसी, सरकार के निर्देश पर, नए आधार पर जांच शुरू कर सकती है, बशर्ते पर्याप्त कारण और सबूत हों।

फिलहाल, अप्रैल 2025 तक, इन मामलों में अमित शाह के खिलाफ कोई नई जांच शुरू होने की खबर नहीं है। 2014 में बरी होने के बाद ये मामले कानूनी रूप से बंद माने जाते हैं, और सीबीआई या अन्य पक्षों ने इसे दोबारा खोलने की कोई औपचारिक पहल नहीं की है। हालांकि, अगर भविष्य में कोई नया सबूत या राजनीतिक दबाव आता है, तो सैद्धांतिक रूप से जांच फिर शुरू हो सकती है, लेकिन यह काफी हद तक परिस्थितियों और कानूनी प्रक्रिया पर निर्भर करेगा।

क्या आपके पास इस बारे में कोई विशिष्ट सवाल है या आप किसी खास पहलू पर और जानकारी चाहते हैं?



रविवार, 23 मार्च 2025

भारतीय संविधान और मनुस्मृति में कई मूलभूत अंतर हैं




जुल्म की एक हद होती है 
जुल्मी हद पार करता रहता है 
जुल्मी की भी एकहद होती है 
उसके जुल्म हद पार करते हैं 
उसके वही जुल्म उसके लिए 
हद पार कर जाते हैं।
और उसका जो होता है सब जानते हैं। 
हजारों साल से जो जुर्म होता रहा है।
सीधा-साधा आदमी उसे अच्छी तरह समझ पा रहा है।
पर वह बोलता क्यों नहीं है। 
क्योंकि उसे मर्यादा में बांध दिया गया है। 
मर्यादा को किसने गढ़ा है। 
संविधान में तो सबको बराबर का हक है। 
वर्ण व्यवस्था ने आदमी को खंड-खंड में खड़ा कर दिया है। 
संविधान बड़ा है या मनु का विधान (मनुस्मृति) बड़ा है। 
संविधान मानने वाले या संविधान बचाने वाले सबसे ज्यादा मनुस्मृति मानते हैं।
तभी तो वर्ण व्यवस्था मानते हैं और वर्ण व्यवस्था में जातियों की भरमार है। 
जातियों के समीकरण से चल रही सरकार है।
क्यों मानते हो जातियां। 
आरक्षण के लिए या पुजारी बनने के लिए।
भेदभाव करने के लिए या किसी मंदिर के ट्रस्ट में रहने के लिए।
मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर जरूरी है या अस्पताल।

(2)
नदिया मैली हो गई है। 
उनकी सफाई पर बहुत सारे अभियान चलाए गए हैं। 
नदियों में शहरों का मल मूत्र लाया गया है।
उद्योगों का कचरा बहाया गया है।
प्राकृतिक तरीके से उसकी स्वच्छता को मिटाया गया है। 
कुंभ,महाकुंभ या स्नान के लिए 
सबसे पवित्र बताया गया है।
वर्ण व्यवस्था बचाने के लिए 
या संविधान मिटाने के लिए। 
विज्ञान के हिसाब से।
वज्ञ बहस भी करता है।
जो रोज अन्याय करता है। 
रोज घूस लेता है और ईमान बेचता है। 
उसका ईमान संविधान से बधा होता है।
मन मनुस्मृति में घुसा होता है
परोपकार के स्वांन्ग रचता है।
परोपकार नहीं करता।
वर्ण व्यवस्था के हिसाब से आचरण करता है। 
कभी बराबर में नहीं बैठता और न बराबर में बैठाता है।

आईऐ्ँ देखते हैं GROK AI क्या कहते हैं

भारतीय संविधान और मनुस्मृति में कई मूलभूत अंतर हैं, जो उनकी प्रकृति, उद्देश्य, समय और संदर्भ में निहित हैं।

नीचे इनके बीच प्रमुख अंतरों को संक्षेप में समझाया गया है: प्रकृति और उत्पत्ति:

भारतीय संविधान : 
यह एक आधुनिक, लिखित दस्तावेज है, जो 26 नवंबर 1949 को अपनाया गया और 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ। इसे भारत के संविधान सभा द्वारा तैयार किया गया था, जिसमें विभिन्न विचारधाराओं और समुदायों के प्रतिनिधि शामिल थे।

मनुस्मृति: 
यह एक प्राचीन हिंदू धार्मिक और सामाजिक ग्रंथ है, जिसे मनु द्वारा रचित माना जाता है। इसका रचनाकाल 200 ईसा पूर्व से 200 ईसवी के बीच माना जाता है। यह संस्कृत में लिखा गया और मुख्य रूप से धर्मशास्त्र का हिस्सा है।
उद्देश्य: 

भारतीय संविधान : 
इसका उद्देश्य एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समानता-आधारित समाज की स्थापना करना है। यह नागरिकों के अधिकारों, कर्तव्यों और शासन की रूपरेखा तय करता है।

मनुस्मृति: 
इसका उद्देश्य धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था को परिभाषित करना था, जिसमें वर्ण व्यवस्था और व्यक्तिगत आचरण के नियम शामिल हैं। यह मुख्य रूप से ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण को प्रतिबिंबित करता है।

संरचना और सामग्री:

भारतीय संविधान: 
इसमें 448 अनुच्छेद, 12 अनुसूचियाँ और 5 परिशिष्ट हैं (संशोधनों के साथ बदलाव संभव)। यह मौलिक अधिकार, नीति निर्देशक तत्व, और संघीय ढांचे जैसे विषयों को कवर करता है।

मनुस्मृति: 
यह 12 अध्यायों और 2,694 श्लोकों में विभाजित है। इसमें वर्णाश्रम व्यवस्था, विवाह, दंड, और कर्मकांड जैसे नियम शामिल हैं।

समानता बनाम असमानता:
भारतीय संविधान: 
यह सभी नागरिकों को समानता का अधिकार देता है (अनुच्छेद 14-18), जिसमें जाति, धर्म, लिंग या जन्म के आधार पर भेदभाव निषिद्ध है।
मनुस्मृति: यह वर्ण व्यवस्था को बढ़ावा देती है, जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के बीच असमानता को स्वीकार किया गया है। इसमें कुछ समूहों के लिए कठोर नियम और दंड निर्धारित हैं।

कानूनी स्थिति:

भारतीय संविधान: 
यह भारत का सर्वोच्च कानून है और सभी नागरिकों व संस्थाओं पर बाध्यकारी है।

मनुस्मृति: 
यह आज कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है, बल्कि एक ऐतिहासिक और धार्मिक ग्रंथ के रूप में देखी जाती है

लचीलापन:

भारतीय संविधान: 
यह संशोधन योग्य है और समय के साथ इसमें 100 से अधिक संशोधन हो चुके हैं।

मनुस्मृति: 
यह स्थिर है और इसमें कोई औपचारिक संशोधन की प्रक्रिया नहीं है, क्योंकि यह प्राचीन काल का ग्रंथ है।

संक्षेप में, भारतीय संविधान एक आधुनिक, लोकतांत्रिक और समावेशी शासन व्यवस्था का आधार है, 
जबकि मनुस्मृति प्राचीन सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं का प्रतिबिंब है, जो उस समय के संदर्भ में प्रासंगिक थी। 

आज के भारत में संविधान ही सर्वोपरि है।

जरा इस पर भी विचार करते हैं-
भारत में वर्ण व्यवस्था को समाप्त करना एक जटिल और बहुआयामी चुनौती है, क्योंकि यह प्राचीन सामाजिक संरचना धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परंपराओं से गहरे तक जुड़ी हुई है। हालाँकि, इसे समाप्त करने के लिए कुछ कदम और दृष्टिकोण अपनाए जा सकते हैं, जो सामाजिक समानता और आधुनिकीकरण की दिशा में ले जा सकते हैं। यहाँ कुछ संभावित उपाय दिए गए हैं:शिक्षा का प्रसार: शिक्षा सबसे शक्तिशाली हथियार है जो लोगों के बीच जागरूकता ला सकती है। जाति और वर्ण के आधार पर भेदभाव को खत्म करने के लिए स्कूलों और कॉलेजों में समानता, मानवाधिकार और सामाजिक न्याय पर जोर देना जरूरी है। जब लोग शिक्षित होते हैं, तो वे रूढ़िवादी मान्यताओं को चुनौती दे सकते हैं।कानूनी सुधार और सख्ती: भारत में संविधान (जैसे अनुच्छेद 15 और 17) पहले से ही जाति आधारित भेदभाव को प्रतिबंधित करता है। लेकिन इन कानूनों का प्रभावी ढंग से कार्यान्वयन जरूरी है। इसके लिए प्रशासनिक सुधार, त्वरित न्याय और भेदभाव के खिलाफ सख्त सजा सुनिश्चित करनी होगी।आर्थिक समानता: वर्ण और जाति व्यवस्था अक्सर आर्थिक असमानता से जुड़ी होती है। गरीबी उन्मूलन, रोजगार के अवसर बढ़ाना और सभी वर्गों के लिए समान आर्थिक नीतियाँ बनाना इस व्यवस्था को कमजोर कर सकता है। जब लोग आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होंगे, तो सामाजिक पदानुक्रम की प्रासंगिकता कम हो सकती है।सांस्कृतिक परिवर्तन: फिल्मों, साहित्य, और मीडिया के माध्यम से वर्ण व्यवस्था के खिलाफ जागरूकता फैलाना महत्वपूर्ण है। पारंपरिक मान्यताओं को चुनौती देने वाली कहानियाँ और संदेश समाज में बदलाव ला सकते हैं। साथ ही, अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहित करना भी एक प्रभावी कदम हो सकता है।धार्मिक सुधार: चूंकि वर्ण व्यवस्था का मूल कुछ हिंदू धार्मिक ग्रंथों से जुड़ा है, इसलिए प्रगतिशील धार्मिक नेताओं द्वारा इन ग्रंथों की पुनर्व्याख्या और समानता पर आधारित शिक्षाओं को बढ़ावा देना जरूरी है। धर्म को आधुनिक संदर्भ में ढालना इस व्यवस्था को कमजोर कर सकता है।सामाजिक आंदोलन: इतिहास में बाबासाहेब आंबेडकर, पेरियार, और ज्योतिबा फुले जैसे समाज सुधारकों ने वर्ण और जाति व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाई। आज भी ऐसे आंदोलनों की जरूरत है, जो स्थानीय स्तर पर लोगों को एकजुट करें और भेदभाव के खिलाफ लड़ें।राजनीतिक इच्छाशक्ति: सरकार को वर्ण व्यवस्था को खत्म करने के लिए ठोस नीतियाँ बनानी होंगी, जैसे आरक्षण को और प्रभावी बनाना, साथ ही इसे धीरे-धीरे मेरिट-आधारित व्यवस्था में बदलना, ताकि सामाजिक एकता बढ़े।यह प्रक्रिया धीमी होगी, क्योंकि यह सदियों पुरानी परंपरा है। लेकिन निरंतर प्रयास, जागरूकता और समानता की ओर बढ़ते कदम इसे कमजोर कर सकते हैं। 
क्या आपके पास इस विषय पर कोई विशिष्ट विचार या सुझाव है जिसे आप विस्तार से चर्चा करना चाहते हैं?